Project developed for STARTALK@NYU by Bhavya Singh (Hindi script edited by Susham Bedi). We are grateful to Phiroza Tafti for giving her consent and sharing her video material and script
Video collage exploring the life of the Warli Community (playlist)
1. परिचय एवं कृषि पद्धति:
दहनू तथा वार्ली जनजाति बहुत प्राचीन हैं। दहनू तालुक़ा में ६६% वर्ली आबादी हैं। वे मूल रूप से वनवासी, शिकारी एवं संग्राहकर्ता थे, लेकिन धीरे धीरे वह एक कृषि चारागाह समुदाय के रूप में बदल गए हैं। वे झोंपड़ियों के छोटे समूह में रहते हैं जिन्हें ‘पडस’ कहा जाता हैं।
उपनिवेशवाद के दौर में आदिवासियों को जंगलो से बाहर निकाला गया। प्राकृतिक संसाधनों या वन उत्पादन के अभाव में, वार्ली जनजाति का गरिमामय जीवन, जीवन संघर्ष में बदल गया।
वे वन साधना की कई प्रथाओं को बनाए रखते हैं। वार्ली महिलायें सूखी पत्तियों और टहनियों की विशाल टोकरियों को लेकर उसमें आग लगा देती हैं, जिस विधि को “राब” कहा जाता है। निर्वाह कृषि में राब को ‘स्लेश एंड बर्न‘ पद्धति के रूप में भी जाना जाता है। उत्तर पूर्वी राज्यों में इसे ‘झूम‘ खेती भी कहा जाता है। ताज़ी कटी हुई शाख़ाओ को सूखने दिया जाता है और फिर उसे राख खाद बनाने के लिए जला दिया जाता है जिससे जंगलो को साफ करने में भी मदद मिलती है। यह काम हाथो से एक घुमावदार हंसिया का उपयोग करके किया जाता है, जिसे ‘कोएटा‘ कहते है और कुल्हाड़ी का उपयोग पौध बोने के लिए होता है।
खीरे या ज्वार के बीज बोने के लिए ढलान पर गड्ढे बनाए जाते हैं, जिसमें बहुत अधिक पानी या उपजाऊ मिट्टी की जरूरत नहीं होती है।
ड्रोंगो जैसे पक्षी इस स्थिति का सबसे अधिक लाभ उठाकर, अपने पंख पर छोटे कीड़े पकड़ते हैं, जो आग की लपटो से उड़ जाते हैं। ड्रोंगो का स्थानीय नाम ‘कोतवाल‘ है और यह एक मिमिक कलाकार है, जो अन्य पक्षियों की आवाज़ों की नक़ल करते हैं। वार्ली बच्चे भोजन के लिए गुलेल या ‘कैटी‘ के द्वारा, छोटे पक्षियों का शिकार करने में माहिर होते हैं।
वार्ली जन हवा की दिशा एवं भूमि की बिछावत को परखने में बहुत माहिर होते हैं। वार्लियो का जीवन मौसम के चक्र के चारों ओर घूमता हैं जिसकी शुरुआत मानसून के आगमन से होती है और वे उत्सुकता से अप्रत्याशित बारिश के लिए इंतज़ार करते हैं। कई गांवों में सड़कों की सुविधाए है और दिन में एक बार राज्य परिवाहन बसे उपलब्ध होती है।
2. खेती:
मानसून का आगमन उन्हें आशा देता है कि, अब वे अपने धान बोने में सक्षम होंगे और चावल की अच्छी फसल की प्रतीक्षा कर सकते हैं, जो उनका मूल भोजन है। जोताई के बाद बुवाई का सफल समापन ‘कोली भाजी‘ के त्योहार द्वारा मनाया जाता है। पूरा परिवार ‘देव मधि‘ के चरो ओर इकट्ठा होता है, जो झोपड़ी का मुख्य स्तंभ है और ‘पावस देव‘ की प्रार्थना करता हैं जो सर्वोच्च वर्षा देवता है।
वार्ली किसान बेलगाड़ी से बांधे हुए हल के द्वारा, अपने खेत को जोतकर, २ से ३ सप्ताह पुराने धान के पौधों को बोने के लिए तैयार करते हैं। ज्यादातर वार्लियो के पास मवेशी नहीं होते, लेकिन 1 1/2 बोरे धान की कीमत देकर वह एक जोड़ी उधार ले सकते हैं।
3. ताड़ी दोहन एवं उत्सव:
टोडी टैपिंग या ताढ़ी बनाना एक विशिष्ट कौशल है जिसे सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए वरना पेड़ नष्ट हो जायेंगे। कटे हुए तने हो रोज़ धोना चाहिए ताकि उसमें से ताड़ी सुचारू रूप से बहती रहे। खमिरी ताड़ी वार्लियो का पसंदीदा द्रव्य हैं क्यूँकि उनके लिए पूजा करने का अर्थ है हरशौलास से उत्सव मनाना, नाचना, मदिरा पान करना और कोई काम ना करना।
4. वार्ली नृत्य:
तर्पा नृत्य वार्ली के लिए अद्वितीय है और वे इस नृत्य को तरपा वादक की ‘छला‘ कहलाने वाली धुन पर करते हैं। यह नृत्य एक उत्सव के रूप में किया जाता है। इसमें पुरुष एवं महिलाएं एक श्रृंखला बनाते हैं, जो एक खुला हुआ चक्र होता हैं, जिसमें वे पीठ के पीछे अपने हाथों को पकड़ते हैं और एक व्यापक शैली में नाचते हैं।
तिरपा वादक तय करता है कि कब वे उसकी बदलती धुन के साथ अपनी दिशा बदलेंगे, इसलिए वह मुखिया कहलाता है और नर्तकियों को उसे ध्यान से सुनना होता हैं। इस लयबद्ध ध्वनि का एक अर्थ होता है। टेम्पो को तब तक तेज और तेज बजाते है जब तक यह एक अर्धचन्द्राकार तक नहीं पहुँच जाता।
वार्लियो के लिए खुला चक्र प्रतीकात्मक होता है क्योंकि उनका मानना है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है बल्कि एक नई शुरुआत है। समय की ये चक्रीय प्रकृति उनके जीवन के सभी क्षेत्रों में दिखाई देती है जिसे उनके कार्य, धन्यवाद, भोग और फिर से काम के वार्षिक चक्र में देखा जा सकता है।
यह गौरी ’नृत्य है जो धान की फसल के बाद, अनाज की देवी‘ कंसारी माँ को धन्यवाद देने के लिए किया जाता है
यह नृत्य तड़पा नृत्य से अलग है क्योंकि नर्तक ‘ढोल्या‘ या ढोल वादक के चारों ओर एक घेरा बनाते हैं, जो दोनो ओर जमढ़े से बने ढोल या ढोलकी को बजाता हैं। वह कभी कभी एक मोटी और एक पतली लकड़ी या अपनी ऊँगलियो का प्रयोग करके ताल और लय से बनी धुन निकलता हैं। नर्तक हाथ नहीं पकड़ते परन्तु रुक रुक के दिशा बदलते हैं।
आज कल वार्ली पुरुष ज्यादातर पैंट पहनते हैं और छोटी लड़कियां सारी की जगह पेटीकोट और ब्लाउज पहनती हैं।
एक लोक कथा के अनुसार ‘कंसारी माँ‘ ने वार्लियों को शाप दिया था, इसीलिए उनके पास कभी भी प्रचुर अनाज नहीं होता है और उन्हें हर साल ज़बरदस्त संघर्ष करना पड़ता है।
5. विवाह समारोह:
इस समुदाय में विवाह सबसे महत्वपूर्ण समारोह है। उनकी विवाह परम्परायें वर्ली संस्कृति के लिए अद्वितीय हैं। यह 4-5 दिनों तक चलतीं है जिसमें कई छोटे छोटे संस्कारों को विस्तार से मनाया जाता है। शादी का मौसम फरवरी या माघ के अंत में शुरू होता है।
शादी की तैयारियों के दौरान, घर की महिला ‘उखल‘ के चारों ओर एक रेखा चित्र खींचती है, जो झोंपड़ी के फर्श में एक गड्ढे की भाती होता हैं, जिसमें चावल कूटा जाता हैं। इस प्रथा को चोक भरना कहते हैं और ये चावल घर के खेतों में उगाया होता है।
‘लग्न चौक‘ की पारंपरिक चित्रकारी बहुत ही महत्वपूर्ण होती हैं जिसके बिना विवाह सम्पन नहीं हो सकता। उर्वरता की देवी, पालघाट को केंद्र में रखा जाता हैं।
वार्लियो का मानना है कि दूल्हा और दुल्हन की शादी के साथ सभी जीवित चीज़ें उर्वरक हो जाती हैं और उन्मे रचनात्मक ऊर्जा भर जाती हैं।
दो दूल्हे चौक को उलटे घड़ी की दिशा में घेरते हैं जो पृथ्वी और चंद्रमा की दिशा का प्रतिनिधित्व करते हैं और उन्हें लकड़ी के छोटे आसान पर बैठाया जाता है।
उनके शरीर पर, चावल का लेप पैरो से लगाना शुरू होता हैं और प्रतीकात्मक रूप से ऊर्जा को ऊपर की ओर बढ़ाता है ताकि अच्छी आत्माये दूल्हे को आशीर्वाद दे सके।
इसके बाद महिलाएं ‘ऊवलानी ’का प्रदर्शन करती हैं, जोकि शरीर को 5 संपर्क बिंदुओं जैसे कि एड़ी, हथेली, कंधों और सिर को छूकर किया जाता है। वहाँ पर सुवासिनों ’द्वारा गायन होता है, यह विवाहित महिलाएं होती हैं, जो पीछे से दूल्हे को बताती हैं कि वह अपने माता–पिता को ना भूले और अपनी जिम्मेदारियों से ना भागे।
इसके बाद दूल्हे को मिट्टी के घड़े या मटके में, गांव के कुएं से लाए हुए पानी से प्रतीकात्मक शुद्धिकरण स्नान कराया जाता है।
चावल को ‘उखल‘ में मूसल के द्वारा, जो एक भारी लकड़ी की लाठी होती हैं, समय अनुसार और कुशलतापूर्वक पीसा जाता हैं। अगले दिन शादी की तैयारी के दौरान दूल्हे के सिर के ऊपर शादी की पगड़ी या ‘बासींग‘ के साथ चावल, सुपारी, और हल्दी रखने के लिए, चालने के लिए प्रयोग किये जाने वाले सूप का इस्तेमाल किया जाता है।
बारात पास के जंगल में पवित्र अम्भाल वृक्ष की शाखाएँ, जो जंगली फ्यकेस वृक्ष हैं, एकत्र करने जाते हैं। इस समूह में दीपक या ‘द्वायालय‘ उठाए हुए सुवासिन शामिल होती हैं। महिलायें देवताओं के लिए सफेद कपड़े में लिपटे चढ़ावे के बंडल ले जाती हैं और छोटी बहन एक नारियल और आम के पत्तों के साथ बना हुआ कलश या तांबे का बर्तन पकड़ती हैं।
वार्ली जन जंगल पर जंगली उत्पादों के लिए निर्भर करते हैं लेकिन वे वन से आवश्यकतानुसार ही वस्तुयें लेते हैं।
महिलाएं सबसे पहले शाखाओं को लाल टीका , फिर अम्भाल की डंडी से धूप देकर और स्थानीय दारू या शराब चढ़ा कर पूजा करेंगी।
भगत पत्ते के प्याले या ड्रोन में ताड़ी पीता हैं और उसे वहाँ पर उपस्थित सभी परिवार जनो को भी दिया जाता हैं।
शाखाओं के कटने और उनकी पूजा के पश्चात, बारात ढोल बजाते हुए तूरे या संगीतकारो के साथ मंडप वापस लोटती हैं।
6. आवास एवं धारणा:
आजकल गाँवों में, कारवि और गाय के कंडे से बने पर्यावरण अनुकूल दीवार की तुलना में अधिकतर झोपड़ियों में ईंटों से बनी पक्की दीवारें हैं। गरमी में गरम होने वाली पर्वतानुकूल चादर या टीन चादर, छप्पर और खपरेल की जगह इस्तेमाल की जा रही हैं।
मंडप देवता की स्थापना के लिए मंडप का निर्माण किया जाता हैं।
मंडप छप्पर से ढके ९ स्तंभों और आम के पत्तों की मला से बनता हैं।
महिलाएं उलटी घड़ी की दिशा में केंद्रीय स्तम्भ के चारों ओर जाती हैं और बुजुर्ग महिलाओं को युवा पीढ़ी द्वारा चक्र में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जाता है। जिससे यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि वे अभी भी अपने बड़ों का सम्मान करते हैं।
दुर्भाग्य से शहरीकरण और बाहरी प्रभावों के कारण रीति– रिवाज़ बहुत तेज़ गति से बदल रहे हैं। बदलती संस्कृति से जुड़े पारंपरिक ज्ञान का नुकसान पहले से ही हो रहा हैं।
वार्लियो के लिए अम्बर शाखा का रोपण बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। ऐसा करने से ‘कुल देव‘ को शादी में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जाता है।
वार्लियो के मुख्य देवता वाघदेव या बाघ देवता हैं और आकाश के तले खुले मैदान में पत्थर या लकड़ी से बने खम्बे गड़े हैं।
प्रकृति के साथ साम्य में रहने से उनकी चेतना में विकास हुआ हैं। उनके चित्र, रंगोली, नृत्य, गायन और संगीत धन्यवाद देने और उत्सव मनाने की प्रार्थना है।
वार्ली जन प्रकृति के साथ रहते हैं और सभी जीवित प्राणियों का भी सम्मान करते हैं। वे सभी प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग बहुत ही सूझ बूझ से करते हैं और सतत रूप से हमारे पास उनसे सीखने के लिए बहुत कुछ है।
वार्ली जन हमें ठहरकर अपने जीवन को करीब से देखना सिखाते हैं।
एक सबक जो समय के अंत तक क़ीमती होगा।