Premchand: Student work

1. सद्गति:Below is my submission on the story Sadgati. I felt really strongly about it, because of which I wrote a longer write up.
First draft: Instructor indicates places that need reformulation and/or correction
प्रेमचंद जी द्वारा रचित सद्गति एक बहुत ही दर्दनाक कहानी है जिसमे उन्होंने समाज की क्रूरता कोप्रदर्शित किया है। कहानी के आरम्भ में प्रेमचंद जी हमारा परिचय दुखी नाम के एक चमार से कराते हैं। दुखी अपने कामों में व्यस्त है और उसकी पत्नी झुरिया भी घर का काम काज निपटा रही है। उनके बात चीत से यह पता लगता है कि दुखी अपनी बेटी का विवाह तय कर चुका है और वह पंडित जी को बुलाने से सकुचा रही है, परन्तु पंडित जी का आना बहुत महत्त्वपूर्ण है ताकि वे विवाह के लिया साइत निकाल सके। संकोच उन्हें इस बात का है कि वे नीची जात के लोग है और पंडित जी ठहरे बड़े पवित्र ब्राह्मण। वे उनका छुआ कुछ भी छू नहीं सकते, यहाँ तक की आसन भी उन्होंने पत्तलों का बनाना ठीक समझा। दुखी पंडित जी को निमंत्रण देने खाली पेट निकल तो जाता है, परन्तु उसे क्या पता था की साइत के लिए उसे अपनी जान ही गवानी पड़ेगी। पंडित जी उससे इतना कठोर परिश्रम कराते है, कि कड़ी धुप में बिनो खाने और पानी के वह दम तोड़ देता है, और बिटिया की शादी करवाए बिना ही परलोक सिधार जाता है। इसलिए इस कहानी को सद्गति नाम दिया गया है क्योंकि पूरे दिन के पश्चात् दुखी को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति मिल जाती है। परन्तु हम सोच भी नहीं सकते कि उसके परिवार पर एक दिन के अनावश्यक श्रम क्या कहर ढा गया। 
इस कहानी में हमे समाज और उसकी निर्दयता का बोध होता है। दुखी ने अपनी बेटी के विवाह के शुभ अवसर पर ही अपनी जान गवा दी। जब दुखी पंडित जी के घर जाता है, तो घास काटकर, भेंट के तौर पर ले जाता है, दुःख की बात तो ये है, कि उस दरिद्र व्यक्ति के उपहार से पंडित जी के गायों को तो खाना नसीब हो गया, किन्तु उस मनुष्य को खाने का एक दाना भी नहीं प्राप्त हुआ। खाना तो दूर की बात है, जब वह पंडिताइन से आग मांगने गया, तब उसे पंडिताइन ने बहुत खरी खोटी सुनाई और उसे जल भी दिया। आग तो मुफ्त का होता है। आग, हवा, जल, ये चीज़ें किसी जात के लिए नहीं बनी है, परन्तु आज भी कुछ गाओं में, दलितों को ऊँचे तबके के लोगो के कुए से पानी नहीं नसीब है। पंडित जी दुखी को धुत्कार कर कहते हैं, कि आज उन्हें छुट्टी नहीं, परन्तु वे सोते और आराम करते हुए ही दिखाई देते हैं। इससे साफ़ पता चलता है, कि पंडित जी सिर्फ अपने पद का फायदा उठा रहे थे और अपना उल्लू सीधा करना चाहते थे। दुखी उन्हें मजदूरी मुफ्त में दे रहा था, जबकि उन्हें उसी मजदूरी के लिए चार आने खर्च करने पड़ते। दुःख की बात तो यह है, कि दुखी का जीवन उन चार आनो से काम मूल्यवान था। पंडित जी अपने पद का दुरूपयोग करते गए और उलटे उन्होंने इतना बड़ा पाप कर दिया। पंडितों को यह ऊँचा पद क्यों दिया जाता है? केवल ब्राह्मण घर में जन्म लेने से तो कोई सम्मान के लायक नहीं बन जाता। मनुष्य अपने कर्म और सोच से सम्मान के लायक बनता है। जो मनुष्य अपने पुत्र इतनी बुरी तरह से मार सकता है कि उसका हाथ टूट जाये, किसी मनुष्य को इतना तड़पा सकता है, की वह डैम तोड़ ले, वह पवित्र नहीं हो सकता। 
कहानी और चल चित्र मोटा मोटी समान है, परन्तु चल चित्र में यह कहा गया है कि दुखी पहले से ही बुखार में था। चल चित्र में दुखी की बेटी धनिया को बहुत ही छोटा प्रदर्शित किया गया है। परन्तु यही समाज की सच्चाई है जहा बल विवाह इतना प्रचिलित है। चल चित्र में एक और बात मेरी नज़र में आई। जब पंडित जी बाकी लोगो की समस्याओं का समाधान निकाल रहें हैं, वे एक युवक को कहते हैं कि उसे दोबारा विवाह कर लेना चाहिए। यह सलाह तो अच्छी है, परन्तु पंडित जी उसे यह सलाह इसलिए दे रहे है, क्योंकि वे कहते हैं, कि उसे लड़के को जन्म देकर अपना वंश बढ़ाना चाहिए। इससे यह बात स्पष्ट है कि वे औरतों को सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रूप में देखतें हैं, और समझते हैँ कि लड़के को होना लड़कियों के होने से बेहतर है। ऐसी नीची सोच के व्यक्ति के आशीर्वाद के लिए दुखी ने जान दे दी, यह बड़ी ही शर्मनाक बात है। 
मेरा मानना है कि इस परिस्थिती में सबसे बड़ी गलती दुखी की है। उसने समाज की बेतुकी रीतियों को इतना मूल्य दिया, कि सही और गलत में अंतर नहीं देख पाया। ऐसा नहीं था की उसको रुकने की मंज़ूरी नहीं थी। उसने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार दी और ये भी न सोचा कि ढोंगी पंडित जी के साईत की जगह उसकी बेटी को अपने पिता के आशीर्वाद की ज़रुरत थी। इसलिए दलित जात ने प्रेमचंद को अपनी आवाज़ बनाने से अस्वीकार कर लिए है। दुखी खुद ही अपने आप को नीच और अपवित्र समझता था। लोगों का तो काम ही है औरों का इस्तेमाल करना तो यदि वह दलित ही अपने आप को पंडित के हवाले कर दे, उसमे मूर्खता उसकी ही है। आज के दलित किन्तु खुद को उस लाचारी से नहीं देखना चाहते। जब पंडिताइन दुखी का अपमान करके उसे आग देती है, दुखी का ह्रदय कृतज्ञता से गद-गद हो जाता है, परन्तु मैं पूछती हूँ कि उसे यह अपमान सहने की ज़रुरत ही क्या थी? इसलिए आज के दलित अपने आप को दुखी की जगह देखने को राज़ी नहीं है। दुनिया बदल रही है और हम धीरे-धीरे जात और धरम के आधार पर भेदभाव को हटा देंगें। 
 
Second draft:
प्रेमचंद जी द्वारा रचित “सद्गति” एक बहुत ही दर्दनाक कहानी है जिसमे उन्होंने समाज की क्रूरता कोप्रदर्शित किया है। कहानी के आरम्भ में प्रेमचंद जी हमारा परिचय दुखी नाम के एक चमार से कराते हैं। दुखी अपने कामों में व्यस्त है और उसकी पत्नी झुरिया भी घर का काम काज निपटा रही है। उनके बात चीत से यह पता लगता है कि दुखी अपनी बेटी का विवाह तय कर चुका है और वह पंडित जी को बुलाने से सकुचा रही है, परन्तु पंडित जी का आना बहुत महत्त्वपूर्ण है ताकि वे विवाह के लिया साइत निकाल सके। संकोच उन्हें इस बात का है कि वे नीची जात के लोग है और पंडित जी ठहरे बड़े पवित्र ब्राह्मण। वे उनका छुआ कुछ भी छू नहीं सकते, यहाँ तक की आसन भी उन्होंने पत्तलों का बनाना ठीक समझा। दुखी पंडित जी को निमंत्रण देने खाली पेट निकल तो जाता है, परन्तु उसे क्या पता था की साइत के लिए उसे अपनी जान ही गवानी पड़ेगी। पंडित जी उससे इतना कठोर परिश्रम कराते है, कि कड़ी धुप में बिनो खाने और पानी के वह दम तोड़ देता है, और बिटिया की शादी करवाए बिना ही परलोक सिधार जाता है। इसलिए इस कहानी को सद्गति नाम दिया गया है क्योंकि पूरे दिन के पश्चात् दुखी को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति मिल जाती है। परन्तु हम सोच भी नहीं सकते कि उसके परिवार पर एक दिन के अनावश्यक श्रम क्या कहर ढा गया। 
इस कहानी में हमे समाज और उसकी निर्दयता का बोध होता है। दुखी ने अपनी बेटी के विवाह के शुभ अवसर पर ही अपनी जान गवा दी। जब दुखी पंडित जी के घर जाता है, तो घास काटकर, भेंट के तौर पर ले जाता है, दुःख की बात तो ये है, कि उस दरिद्र व्यक्ति के उपहार से पंडित जी के गायों को तो खाना नसीब हो गया, किन्तु उस मनुष्य को खाने का एक दाना भी नहीं प्राप्त हुआ। खाना तो दूर की बात है, जब वह पंडिताइन से आग मांगने गया, तब उसे पंडिताइन ने बहुत खरी खोटी सुनाई और उसे जल भी दिया। आग तो मुफ्त का होता है। आग, हवा, जल, ये चीज़ें किसी जात के लिए नहीं बनी है, परन्तु आज भी कुछ गाओं में, दलितों को ऊँचे तबके के लोगो के कुए से पानी नहीं नसीब है। पंडित जी दुखी को धुत्कार कर कहते हैं, कि आज उन्हें छुट्टी नहीं, परन्तु वे सोते और आराम करते हुए ही दिखाई देते हैं। इससे साफ़ पता चलता है, कि पंडित जी सिर्फ अपने पद का फायदा उठा रहे थे और अपना उल्लू सीधा करना चाहते थे। दुखी उन्हें मजदूरी मुफ्त में दे रहा था, जबकि उन्हें उसी मजदूरी के लिए चार आने खर्च करने पड़ते। दुःख की बात तो यह है, कि दुखी का जीवन उन चार आनो से काम मूल्यवान था। पंडित जी अपने पद का दुरूपयोग करते गए और उलटे उन्होंने इतना बड़ा पाप कर दिया। पंडितों को यह ऊँचा पद क्यों दिया जाता है? केवल ब्राह्मण घर में जन्म लेने से तो कोई सम्मान के लायक नहीं बन जाता। मनुष्य अपने कर्म और सोच से सम्मान के लायक बनता है। जो मनुष्य अपने पुत्र इतनी बुरी तरह से मार सकता है कि उसका हाथ टूट जाये, किसी मनुष्य को इतना तड़पा सकता है, की वह डैम तोड़ ले, वह पवित्र नहीं हो सकता। 
कहानी और चल चित्र मोटा मोटी समान है, परन्तु चल चित्र में यह कहा गया है कि दुखी पहले से ही बुखार में था। चल चित्र में दुखी की बेटी धनिया को बहुत ही छोटा प्रदर्शित किया गया है। परन्तु यही समाज की सच्चाई है जहा बल विवाह इतना प्रचिलित है। चल चित्र में एक और बात मेरी नज़र में आई। जब पंडित जी बाकी लोगो की समस्याओं का समाधान निकाल रहें हैं, वे एक युवक को कहते हैं कि उसे दोबारा विवाह कर लेना चाहिए। यह सलाह तो अच्छी है, परन्तु पंडित जी उसे यह सलाह इसलिए दे रहे है, क्योंकि वे कहते हैं, कि उसे लड़के को जन्म देकर अपना वंश बढ़ाना चाहिए। इससे यह बात स्पष्ट है कि वे औरतों को सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रूप में देखतें हैं, और समझते हैँ कि लड़के को होना लड़कियों के होने से बेहतर है। ऐसी नीची सोच के व्यक्ति के आशीर्वाद के लिए दुखी ने जान दे दी, यह बड़ी ही शर्मनाक बात है। 
मेरा मानना है कि इस परिस्थिती में सबसे बड़ी गलती दुखी की है। उसने समाज की बेतुकी रीतियों को इतना मूल्य दिया, कि सही और गलत में अंतर नहीं देख पाया। ऐसा नहीं था की उसको रुकने की मंज़ूरी नहीं थी। उसने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार दी और ये भी न सोचा कि ढोंगी पंडित जी के साईत की जगह उसकी बेटी को अपने पिता के आशीर्वाद की ज़रुरत थी। इसलिए दलित जात ने प्रेमचंद को अपनी आवाज़ बनाने से अस्वीकार कर लिए है। दुखी खुद ही अपने आप को नीच और अपवित्र समझता था। लोगों का तो काम ही है औरों का इस्तेमाल करना तो यदि वह दलित ही अपने आप को पंडित के हवाले कर दे, उसमे मूर्खता उसकी ही है। आज के दलित किन्तु खुद को उस लाचारी से नहीं देखना चाहते। जब पंडिताइन दुखी का अपमान करके उसे आग देती है, दुखी का ह्रदय कृतज्ञता से गद-गद हो जाता है, परन्तु मैं पूछती हूँ कि उसे यह अपमान सहने की ज़रुरत ही क्या थी? इसलिए आज के दलित अपने आप को दुखी की जगह देखने को राज़ी नहीं है। दुनिया बदल रही है और हम धीरे-धीरे जात और धरम के आधार पर भेदभाव को हटा देंगें। 
 
2. कफ़न: प्रेमचंद जी द्वारा रचित “कफ़न” एक बहुत दर्दनाक कहानी है। कहानी के शुरुआत में हम घीसू और उसके पुत्र माधव से परिचित होते हैं। माधव की पत्नी बुधिया गर्भ से थी और प्रसव-वेदना के दर्द से झुलस रही थी। उसकी हालत कुछ ठीक नहीं लग रही थी और उसकी चीखें गूँज रही थी। उसकी दशा देखकर दोनों पिता और पुत्र को उसके बचने की ज़्यादा उम्मीद नहीं थी। इसके बावजूद वे दोनों उसके सिरहाने शोक मनाते हुए नहीं बैठे थे। घर के दोनों मर्द बहुत ही आलसी और अल्हड़ किसम के थे। घीसू ने अपना पूरा जीवन बेरोज़गारी और दीनता में गुज़ार दिया और माधव भी उसी के नक़्शे कदम पर चल रहा था। ऐसा नहीं था कि गाओं में मज़दूरी की कमी थी परन्तु कोई किसान इन दोनों को इसलिए काम न देना चाहता था क्योंकि वे काम कम करते और आराम ज़्यादा। बाकी समय बीड़ी और चिलम में गुज़र जाता। समस्त गाओं में वे बहुत बदनाम थे और चोरी, आलस, आदि के चक्कर में बहुत मार खा चुके थे। एक बुधिया ही थी जो उनके घर में मेहनत की रोटी कमाकर उनका पेट भरती थी। आज उसी के मृत्यु शय्या पर दोनों को कंटाल आ रहा था, दया नहीं। दवा दारू का बंदोबस्त करने की जगह दोनों पेट पूजा कर रहे थे। जब घीसू ने माधव को बुधिया को देख कर आने को कहा, तो माधव ने जाने से मना कर दिया क्योंकि उसे शंका थी कि घीसू उसके हिस्से की भी आलू चट कर जायेगा। दोनों बुधिया को अपनी हालत में छोड़ कर सो जाते हैं और सुबह उठ कर बुधिया का मृत शरीर देखते हैं। बुधिया अपने गर्भ में बच्चा लिए ही चल बसी। उनके रोने पीटने की आवाज़ सुनकर सारे पड़ोसी इक्कठा हो गए और सांत्वना देने लगे। पिता और पुत्र भी अर्थी की व्यवस्था में जुट गए। ज़मींदारों और महाजनों के घर जा जाकर वे कुल पांच रूपए इक्कठा तो कर लेते हैं, किन्तु कफ़न खरीदने की जगह वे सारे पैसे मधुशाला और पकवानों में उड़ा देते हैं। व्यंग्य की बात तो यह है कि जिसको जीते जी दवा दारु का सुख नहीं मिला, उसके कफ़न के लिए ५ रपय इक्कठा हो गए। घीसू और माधव को कोई मातम या खेद होते हुए नहीं दिखता है। दरिद्रता और लाचारी उन्हें इतना अमानवीय बना देती है कि मृत्य में भी वे बुधिया को सम्मान न दे सके। 
इस कहानी में हम कुछ ऐस पात्रों से मिलते है जो सही और गलत के दायरे में नहीं आते। ये कहना बहुत मुश्किल है कि वे कहानी के नायक हैं या खलनायक। गरीबी के मारे वे काम काज करने का सारा प्रलोभन ही खो देते हैं। फटे पुराने कपड़े और चुराए हुए खाने से ही वे संतुष्ट है। उन्हें एक बेहतर जीवन की कोई मनोकामना ही नहीं है। इससे एक बहुत महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है – क्या दरिद्र व्यक्ति को आशा की कोई किरण ही नहीं दिखाई देती? वे ज़िन्दगी से इतना पृथक हैं कि घर में संतान होने का कोई बंदोबस्त ही नहीं था। माधव अपनी पत्नी के प्रति इतना तटस्थ है कि ऐसा नहीं लगता कि उसे बुधिया से कोई लगाव था। प्रेमचंद ने इस दलित परिवार को एक बहुत अटपटा स्वरूप दिया है। एक तरफ हमें क्रोध आता है कि पिता और पुत्र इतने आलसी हैं, तो दूसरी ओर मेहनती किसानों का फायदा उठाया जाता है जिसकी वजह से उन्हें मेहनत का फल नहीं मिलता। 
इस कहानी में भी हम देख सकते है कि क्यों दलित प्रेमचंद को अस्वीकार रहे हैं। प्रेमचंद जी ने इन दलितों को ऐसा दर्शाया है कि वे आलसी और अक्षम तो है ही, और ऊपर से चोर भी। उन्हें असंवेदनशील दिखाया गया है जो केवल अपने बारे में सोचते हैं, अपने परिवार की परवाह नहीं करते। नीचे तबके का होने का अर्थ यह नहीं ही है कि मनुष्य अपनी मनुष्यता और वात्सल्य को भूल जाए। कहानी में घीसू और माधव को स्वार्थी दर्शाया गया है। चलचित्र कहानी से थोड़ा अलग है। चलचित्र के आरम्भ में हम देखते हैं, कि उन्हें बुधिया के खाने पीने की चिंता ज़रूर है और दाई और दवा के पैसे न होने में कारण, उनके हाथ बंधे हुए है। जब वे रस्सी भी चुराते है, वे यह इस बहाने से करते हैं कि वे किसी का धरम बचा रहे है। इससे स्पष्ट नज़र आता है कि समाज में छूआछूत और अंधविश्वास अब भी मौजूद है। चलचित्र में एक और अलग बात यह है कि घीसू और माधव खुद काम खोजने जाते हैं। परन्तु उनके आलस के कारण उन्हें काम नहीं मिलता। 
कहानी के अंत में हम ये ज़रूर देख सकते हैं कि नशे में ही सही, लेकिन वे बुधिया को स्वर्ग सिधारने को दुआ देते हैं। वे कृतज्ञ हैं कि वह दुनिया की मोह माया से मुक्त हो चुकी है। कही ऐसा लगता है कि वे भी इस समाज से थक चुके हैं और इसे लड़ने की शक्ति खो बैठे हैं। 
 
3. पछतावा: जीवन में अक्सर मनुष्य की पप्राथमिकताएँ बदल जाती है। हम अपने दोस्तों और सहयोगीयों को परिस्थितियों चुनने लगते हैं। जब यह निर्णय स्वार्थ के लिए होता है तब बाद में पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचता। प्रेमचंद जी द्वारा रचित “पछतावा” में यही दर्शाया गया है। पंडित दुर्गानाथ एक सरल और सुशील युवक है जो कॉलेज से निकल कर एक इज़्ज़तदार नौकरी की तलाश में हैं। उनमें न तो रईसी का लालच है और न ही शोषण की भावना। पढ़ा लिखा होने के बावजूद उन्हें अधिक वेतन नहीं चाहिए, चाहिए तो बस लोगों की भलाई और खेतिहरों के साथ संचार। वे ऐसी ही नौकरी तलाश कुँवर विशालसिंह के घर पहुँचते हैं। वे कुँवर साहब से ऐसी नौकरी का अनुरोध करते हैं। कुँवर साहब ठहरे बड़े घमंडी। वे पंडित जी को अपने चपरासियों तक की रईसी के बारे में बताने लगते हैं। जब पंडित जी ने इसका समर्थन नहीं किया, कुँवर साहब उन्हें यह सोचकर नौकरी दे देते हैं कि कम तनख्वाह में पढ़ा शिक्षित पंडित मिल रहा है। पंडित जी को चाँदपार नामक इलाके का कारिंदा नियुक्त किया जाता है। 
चाँदपार पहुँच कर पंडित जी को राज्य कार्यकर्ताओं की आन बान का अहसास होता है। उनका बँगला सुख-संपत्ति का प्रतीक था। सवारी के लिये ताँगा, नौकर चाकर, चपरासी, सभी सुख सुविधाएँ मौजूद थे। परन्तु इन उपलब्धियों से पंडित जी की आँखें नहीं चमकी। बँगले के चारों ओर मिट्टी के झोपड़े और फूस के घर थे। किसानों की दरिद्रता देखकर उन्हें अपनी विलासिता से घिन्न आती।  पहले ही दिन किसानों ने पंडित जी के लिए भिन्न प्रकार के उपहार भेजे। यह जैसे कोई परंपरा थी। किन्तु पंडित जी ने सारे उपहार लौटा दिए। गरीब किसानों से रिश्वत लेना उन्हें गवारा नहीं था। जहाँ एक तरफ़ सभी किसान पंडित जी की सज्जनता से गदगद हो रहे थे, दूसरी तरफ़ चपरासियों का खून खौल रहा था। उनके शिकायत करने पर भी पंडित जी ने उन की एक न सुनी। पंडित जी की दयालुता और सदाचार के बदले किसानों ने सारे वसूली के रूपए यथासमय दे दिए। यह सफलता देखकर कुँवर साहब ने इस वर्ष सारे ऋणों को वसूलने का निस्चय कर लिया। वसूली के मामले में कुँवर साहब बड़े अन्यायी थे। एक का डेढ़ा वसूलते थे। जब उन्होंने गाँव वालो को बुलाकर वसूली की बात की, एक बूढ़े व्यक्ति मलूका की बातों से वे क्रोधित हो गए। जब उनके चपरासी ने मलूका पर हाँथ उठा लिया, तब उसके जवान बेटों और चपरासियों के बीच हाथापाई हो गयी। फिर भी मलूका ने विनम्रता से कुँवर साहब के माफ़ी मांगी लेकिन कुँवर साहब के क्रोध टस से मस न हुआ। उनका तिरस्कार कर के कुँवर साहब ने उन्हें वहाँ से रफा दफा कर दिया। कुँवर साहब ने पंडित जी को बुलाकर उन्हें खूब डाँटा और उनके ऊपर गांव वालों को बिगाड़ने का सारा इलज़ाम थोप दिया। उन्होंने गांव वालों को मज़ा चखाने के लिए एक तरकीब सोची। उन्होंने पंडित जी से कोर्ट में झूठी गवाही देने को कहा। पंडित जी के लाख मन करने पर भी वे न माने। कोर्ट में पेशी देते वक्त पंडित जी से मिथ्य कहा न गया। उन्होंने सब सच उगल दिया और वे केस हार गए। जब कुँवर साहब को यह बात मालूम पड़ी, वे आग बबूला हो गए। पंडित जी की नौकरी तो गई, लेकिन जाते जाते वे गांव वालों के मन में अच्छी भावनाएं भरकर चले गए। सारे गांव वालों ने पैसे इकट्ठे कर, सारा ऋण लौटा दिया। 
समय बीतता गया और कुँवर साहब को एक बेटा पैदा हुआ। वे बूढ़े हो चुके थे और उन्हें पता था कि उनके पास ज़्यादा समय नहीं है। जब उन्होंने अपने बच्चे के संरक्षक को खोजना शुरू किया उन्हें कोई भी न दिखा। सभी रिश्तेदार और नौकर चाकर कपटी थे। वे इसी आशा में चल बसें कि एक दिन पंडित दुर्गानाथ उनके बेटे का उद्धार करने वापस लौटेंगें। वे अपनी धन संपत्ति उनपर न्योछावर करने के लिए तैयार थे क्योंकि धन तोह हाँथों का मैल है लेकिन उनके बच्चा का सच्चा पालक उस सज्जन पुरुष के अलावा और कोई न था। 
इस कहानी में हम ककुँवर साहब के हाँथों किसानों की ओर किया दुराचार देख सकते हैं। यहाँ भी वर्ग का अंतर समाज का कड़वा सच है। कुँवर साहब को मलूका का बोलना इतना खटक जाता है कि वे गाँव वालों को फसाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। पछतावा तो आया बाद में जब उन्हें एक सच्चे मनुष्य की ज़रूरत आन पड़ी। उन्होंने वसूली के लिए किसानों को मारा, पीटा, यहाँ तक की उनके घर तक जलाए थे, लेकिन जो काम इतनी सरलता से सदाचार कर गया, उनका दहशत न कर सका। इस समाज में हम औरतों की असहायता भी देख सकते हैं। उनकी पत्नी के जीवित होने के बावजूद वे अपने पुत्र को अनाथ कहते हैं और उसकी हिफाज़त के लिए एक पुरुष को तलासते हैं। शर्मनाक बात तो यह है कि उनकी पत्नी भी अपने आप को इतना अशक्त समझती है कि उन्हें अपने बच्चे के पालन के लिए किसी पराये पुरुष की आवश्यकता महसूस होती है। इतिहास यह गवाह है कि अकेली औरतों ने बच्चों का सकुशल पालन किया है। जब हमीदा बानू अकबर को और कुंती पांडवों को अकेले पाल सकती है और उन्हें ऐसे महान दिग्गज बना सकती है, तो इस समाज में कुँवर साहब की पत्नी को इतना अक्षम क्यों दिखाया गया है? शायद इसलिए प्रेमचंद किसी सक्षम महिला की आवाज़ नहीं बन सकते। 
 
4. प्रेमचंद की तीनों कहानियों में समाज से सम्बंधित लेखक के प्रधान विचार और दृष्टिकोण समझाएं: समाज की आलोचना करते हुए लेख ने कौनसी सब से महत्त्वपूर्ण समस्याओं की चर्चा की थी और उनके सुधार करने का उत्तरदाईत्व किस वर्ण को सौंपा था और क्यों?