पानी का गीत

(From “पहर दोपहर ठुमरी”)

Author’s introduction of the short story:
कछुये की पीठ सा फैला था चट्टान
रात जब सोये थे 
जाने किधर कैसे 
बाहर से आकर 
छाती पर जम गया 
 
अब इंतज़ार है 
कब पिघलेगा ग्लेशियर 
बेलगाम बेकहल बेइंतहा
दौड़ जाता है 
बर्फ के पिघलने का उमगता इंतज़ार
इस जनम उस जनम 
सदियों तक 
पानी का 
मात्र एक सिम्पल केमिकल इक्वेशन 
 
पोटली में चावल, गन पाउडर और दो आलू बाँधे निकल पड़ते थे कुमरन नायर। सफेद कमीज़ और सफेद मुंडु, पैरों में रबर की चप्पल । दूर दराज़ गाँवों तक अब नाम फैल गया था। पानी खोज लेते थे । कैसी ऊसर बंजर धरती हो, नदी नाले से दूर, फिर भी जाने कैसे अपनी कौन सी छठी सातवीं इन्द्रीय से पा लेते थे पानी का आभास। जाने पिछले कौन से कितने जनमों में पानी की प्यास लिये भटके थे। इतना भटके, इतने जनमों में कि खून से आत्मा तक में प्यास का बुलबुला दौड़ता, जैसे शरीर तो शरीर, आत्मा तक सिर्फ एक प्यास का बिलखता आदिम गीत हो । सपना आता था बिना नागा कई बार कि छाले पत्ते पहने नंगे पाँव भटकते हैं जंगल जंगल… पत्तों पर से पीते है ओस की एक बून्द, हरहराते पहाड़ी नदियों में जानवर की तरह पेटकुनिये लेटे मुँह डाल देते हैं हरहर उबलते झागदार पानी में और फिर महसूसते हैं एक एक पोर में पानी का भरना, तृप्त होना। 
 
जब जब यह सपना आता है, कुमरन नायर पानी का पता खोज लेते हैं। घर से दो सौ मील तक के घेरे में पूछो तो कुमरन नायर का पता बच्चा बच्चा बता दे । अच्छा ! कौन ? किसे ढूँढते हैं ? सिद्धाँती जी को ? कूँआ खोदना है ? पानी चाहिये ? फिर ज्ञानबुद्धि से सर डुलाकर कहते, मिलेगा अगर सिद्धाँती जी को पकड़ पाये । निकले हैं अभी पानी के खोज में । मिलेगा आपको भी ।
Painting by Pratyaksha
कुमरन नायर की दोमुँही छड़ी का जादू है । चलते चलेंगे चलते चलेंगे और फिर यकबयक छड़ी का सिरा नीचे झटके से मुड़ जायेगा । लोगों ने सिर मुड़ाये शर्त बदी क्या क्या नहीं किया… पर हर बार बिला नागा खोदते खोदते पहले गीली पीली मिट्टी, फिर गीली काली मिट्टी, फिर रिसता मटमैला पानी । अंत में मीठा मीठा पानी। आत्मा तृप्त हो ऐसा मीठा ठंडा पानी । ओक भर कर मुँह से ठुड्डी गला छाती, पैर की अंतिम कानी उँगली का मुड-आ तुड़ा खुर्राट कड़ा नाखून तक तर हो ऐसा शीतल पानी।
 
खाली एक बार हारे हैं कुमरन नायर। वो भी अपनी ज़मीन पर । तीन बार खोदा । पानी निकला पर हर बार खारा । इसी दुख में बिस्तर से लगे । पानी से मुँह मोड़ लिया । अस्सी के हुये, झुरझुर हुये । आँख से आँसू बहते, चुप गुमसुम पड़े रहते । पानी का कारोबार खत्म हुआ । मान चले कि जितना लिखवा कर लाये थे उतना पानी तलाश दिया । शरीर सिकुड़ गया, पानी रिस गया, पंछी उड़ गया। 
बरगद के पेड़ के नीचे चट सूखी धरती में दरारों की अनगिनत रेखा है । काले गूची सनग्लासेज़ पहने, लीवाई जींस के पॉकेट में हाथ डाले सिगरेट का एक धूँएदार छल्ला उड़ाते कुमरन नायर का परपोता सोचता है वाटर हार्वेस्टिंग के जो टेकनीक्स योरप से सीख आया है यहाँ कारगर होगा कि नहीं ?