दिलनवाज़ तुम बहुत अच्छी हो !

(From “जंगल का जादू तिल तिल”)                                                 

Author’s introduction of the short story:

(अँधेरे और रौशनी के परे, एक उन्मत्त गीत )

इस ओर अब भी अँधेरा है । उस ओर जगर मगर रौशनी है । अँधेरे में बैठकर  उस जगर मगर रौशनी को देखने का सुख भी एक तरीके का सुख है । सँभावनाओं से भरपूर सुख, काले सुरंग के पार फक्क से कोई रौशनी जल जाये , जैसा सुख ! 
 
सब सीधा सच है , सब गहरे परतों से भरा है । खुलेगा एक एक या क्या पता यकबयक । तब तक अंदर एक नदी बहती है किस पुरातन समय से , मीठे पानी की नदी , उदास गीतों की नदी , कुछ कर दिया कुछ और, बहुत और करेंगे वाली नदी ।और सब भीगता रहता है, मन शरीर आत्मा जैसे बरसात टपकती है तेंदू पत्तों पर से, मोटी मोटी बून्दें । लाल मोर्रम की मिट्टी बरसात से भीग कर चप्पल पर चिपक जाती है । हर कदम भारी हो जाता है । हर कदम धीमा । मैं ठहर ठहर सोचती हूँ, जीती हूँ । सच ! अब जाकर जीती हूँ । बदन सिहर जाता है इस जीने के सुख में, इस होने के सुख में, किसी प्रयोजन के सुख में, कितना छोटा सा ही क्यों न हो । उस छतनार पेड़ से सटे, उस काले पसरे चट्टान से सटे अपने उस छोटे से घर में मड़ई में, मेरे होने में, मेरे संदीपन के बावज़ूद, उसके बिना होने में, गाँव की रजगज में, सेंटर की हलचल में, देर रात लालटेन और पेट्रोमैक्स की रौशनी में बच्चों और औरतों को क से कमल और ज से जंगल पढ़ाने में, मानिक पुरकैथ से रिहैबिलिटेशन डिसकस करने में, सर्वे के कागज़ों को चेक करने में, सर्कल ऑफिसर और बीडीओ से कागज़ात निकलवाने में, शहर जाने में और फिर, ओह सुख, गाँव वापस लौटने में, डुमरी के थके पिराते सर में तेल मलने में, कोने साँधी में उमा के सजाये सूखे मुरझाये फूल पत्ती के झरते गुच्छों में… क्या मिलता है मुझे ?अपने होने जीने का अर्थ ?  
 
Painting by Pratyaksha

 नेरूदा  की किताब जाने कब से गोद में रखी है । अँधेरे में किताब का स्पर्श ही सुकून देता है । उँगलियाँ फेरते फेरते मैं अँधेरे को आँखों से पीती हूँ । छोटे से मोढ़े पर खुले दरवाज़े पर बैठकर मैं तृप्त हूँ । इस अँधेरे से तृप्त हूँ । कहाँ से कहाँ आ गई यह सोच कर अब हैरान नहीं होती । किसी सपने को देखकर हैरान नहीं होती । घर से इतनी दूर आकर हैरान नहीं होती । अब किसी बात से हैरान नहीं होती । कोई जादू था  फिर हैरानी कैसी । किस टोटके से बँधी मैं आई थी । पर अब आ गई थी । इस गाढ़े अँधेरे से भय नहीं था ।  सिर्फ काम था सिर्फ काम । हर दिन काम था । और एक चैन था, कोई गीत था, उन्मत्त बेचैन फिर भी ठहरा हुआ शांत… एक अजब गज़ब संगीत । पर हमेशा ऐसा नहीं था । कोई बुनावट थी  अंदर जो आकार ले रही थी जाने कब से, सुप्त थी कभी अब जागती थी । सब रंग सब सुर मिलकर कोई गीत गाते थे आखिर । हर किसी के साथ ऐसे ही होता है । पर पहचानना होता है अपने अंदर के इस भीतरी बुनावट को । धीरे धीरे मेरे अंदर की दुनिया बन रही थी , सिरज रही थी । पर कैसी खाई थी बाहर और अंदर के बीच । सो मच वैरियंस । हर कदम के साथ बीच का फासला पट रहा था । मुझे पता नहीं था पर ऐसा हो रहा था अपने आप ।  मेरे अंदर बाहर की सब दुनिया मेरे साथ साथ चल रही थी अंतत: । जैसे कोई स्वप्न समय का आदिम राग हो, अ मार्चिंग सॉन्ग । मेरा जीवन राग। 

मैं नेरूदा की पंक्तियाँ अँधेरे में याद करती हूँ , उन्मत्त प्रेम की पंक्तियाँ… 

Painting by Pratyaksha

I can write the saddest poem of all tonight.

Write, for instance: “The night is full of stars,
and the stars, blue, shiver in the distance.”
The night wind whirls in the sky and sings.
I can write the saddest poem of all tonight.
I loved her, and sometimes she loved me too.
 
बीच में भूलती हूँ फिर अंत का सिरा पकड़ती हूँ …
 

I no longer love her, true, but how much I loved her.

My voice searched the wind to touch her ear.
Someone else’s. She will be someone else’s.
As she once belonged to my kisses.
Her voice, her light body. Her infinite eyes.
I no longer love her, true, but perhaps I love her.
Love is so short and oblivion so long.
Because on nights like this I held her in my arms,
my soul is lost without her.
Although this may be the last pain she causes me,
and this may be the last poem I write for her 
 
मैं कौन सा शोकगीत गाऊँगी ? किसके लिये लिखूँगी सबसे उदास सतरें ? मेरा सबकुछ तो यहीं है, यहीं । फिर भी किसी अनजाने दुख से मेरा गला भर आता है । छाती से कंठ तक दुख जम जाता है, बर्फ की सिल्ली । मैं धीमे मुस्कुराती हूँ । बालों पर कोई फतिंगा फँस गया है । कुछ देर में उठूँगी । कुछ पकाऊँगी, खाऊँगी । फिर थोड़ी पढ़ाई । आँखें दुखती हैं ज़्यादा देर लैम्प की रौशनी में पढ़ने में । गाँव में जल्दी ही बिजली आयेगी, कम से कम उस एक कमरे के कम्यूनिटी सेंटर में । फिर आसान होगा पढ़ना और पढ़ाना । अँधेरे में मन इधर उधर भागता है । दिन भर की थकान है पर मन थका हुआ नहीं है । अच्छा लगता है । उँगली रखना चाहती हूँ ठीक उस बात पर जिससे अच्छा लगता है । यहाँ, यहाँ, यहाँ । फिर यह भी और यह भी । पर ठीक ठीक पता नहीं चलता । बस इतना ही तय कर पाती हूँ कि अच्छा लगता है । उदासी में भी अच्छा लगता है ।उमा पास आकर खड़ी हो जाती है । कुछ कहती नहीं बस छू सके इतनी दूरी पर चुपचाप खड़ी हो जाती है । नौ साल की उमा, मेरी छोटी सी सखी सहेली । 
 
“आज यहीं सो जायें ?” फुसफुसाकर पूछती है। 
”भाग, जल्दी से अपनी माँ से पूछ आ “ ,  
मैं व्यस्त होने लगती हूँ ।…
 

छत पर निवार की पुरानी खाट पर बैठी मैं चेहरा हाथों में भरे बस ताक रही थी । अंदर सब खाली था । जैसे सारा तत्व बह गया हो और मैं सिर्फ एक खोल बच गई हूँ । चाची सफेद फूलों वाली साड़ी पिंडलियों तक दबाये पीढ़े पर चुकु मुकु बैठी थीं । नीचे पुराने बदरंग चादर पर ढेर की ढेर लाल मिर्चें, आचार वालीं । कठौत में मसाला पड़ा था । सुखाये हुये चटक लाल चमकीले मिर्च में उनके अभ्यस्त हाथ तेज़ी से मसाला भर रहे थे । मिर्चों की दहकती शोखी और मसालों की तीखी गंध मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी । सब बेजान पपड़ाया हुआ था । उसपर यह तेज़ी । उफ्फ ! मैंने हाथों से आँखों को ढक लिया था । चाची  ने एक बार रुक कर मुझे देखा था फिर अपने काम में लग गई थीं । दो मिनट ठहर कर गठियाये घुटनों को सहारा देते उठी थीं । सीढ़ीयों से उनके चप्पलों की फटफट सुनाई दे रही थी । 

चाय का प्याला बिना कुछ कहे मुझे पकड़ाया था फिर काम में लग गई थीं । बस इसी लिये तो मैं यहाँ भागी आई थी । जैसे घायल बीमार कुत्ता मिट्टी के ठंडक में सुकून खोजे । 
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बिदप्पा, दुबला पतला छोटा सा बिदप्पा जब अपनी छोटी काली आँखें मिचका के कहता ,
“ दिलनवाज़ नुव्वु चाला मंचीदान्वी “, (दिलनवाज़ तुम बहुत अच्छी हो ) मैं हँस पड़ती । 
“बिदप्पा आयम बीगिनिंग टू अंडरस्टैंड तेलुगू ।“।
फिर वो अंग्रेज़ी पर उतर जाता , 
“रियली ? देन यू कैन शेयर माई पोरियाल टूडे ।“ 
“अरे हट मेरे रोगन जोश के आगे तेरा पोरियाल । गो वाश योर फेस ।“ 
पर वो ढीठ हँसता रहता, कभी वाश हिज़ फेस नहीं किया । रूना को मैं कहती बिदप्पा यह बिदप्पा वो…
“बिदप्पा के आगे भी तो कुछ बोल न“, रूना बेजार होती ।
 
पर बिदप्पा तो मेरा बडी था, चाइल्डहुड बडी । बस । उसको मैं बचपन की मार से लेकर माँ से यहाँ लड़कर आ जाने की बात , सब बेहिचक बता सकती थी । अपने पहले क्रश और अपने रीसेंट मेंस्ट्रुअल क्रैम्पस तक के बारे में भी । मेरे लिये वो जेंडर न्यूट्रल था, मेरा चार्ल्स शुल्ज़ के लिनस का कम्बल था, मेरा फ्रेंडशिप इज़ अ वार्म हग था ।इस भरी अपरिचित दुनिया में मेरा ऐंकर था ।
 
ही हैड अ वार्म ब्राउन मंकी फेस ऐंड आई लव्ड हिम, ट्रूली ट्रूली । 
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छुट्टियों में मैं तब घर गई थी । माँ का ऐसा व्यवहार जैसे पहले कुछ हुआ ही न हो । आश्चर्य होता मुझे । कितनी लड़ाईयाँ लड़कर इस मुकाम पर आई और अब माँ ने जैसे मेरी जीत का पैनापन ही भोथरकर दिया । और तो और पड़ोसी रिश्तेदार आते तो उमग उमग कर बताया जाता कि देखा दी ने क्या कमाल दिखाया । अकेले इस बड़े शहर में जाकर किस दिलेरी और आराम से न सिर्फ पैर जमाया बल्कि खासी नौकरी भी जुगाड़ ली । बाबा हुलस कर कहते बबुनी केत्ता बड काम कर लेहली । खानदान के नाम ऊँचा हो गईल । मैं किसी हारे सिपाही की खिसियानी हँसी हँस देती । लोग बाग के सामने बकायदा मेरी नुमायश लगती । होनहार माँ की होनहार बेटी । माँ अपने पढ़ने का चश्मा आँखों से माथे पर खिसका कर संजीदगी से कहतीं, मैं तो हमेशा से जानती थी कि दी कुछ खास है । फिर उसाँस भरतीं, आज इसके पप्पा होते तो… । मैं भौंचक देखती मेरी लड़ाई का, मेरी जीत का सेहरा माँ किस कदर बड़प्पन से, मासूमियत से अपने सर बाँध लेतीं । यही माँ थीं जिन्होंने एड़ी चोटी लगा दी थी कि मैं बाहर जा न सकूँ ।
 
और मैं भी ज़िद्दी की ज़िद्दी । ठान लिया था कि इस कूँये से निकलना ही है । इधर उधर चुप्पे अचक्के फॉर्म भरती, लोगों से पूछती पाछती अपनी किलेबन्दी तैयार करती रही । रात रात की गुप्त योजनायें, भागने के ब्लूप्रिंट्स, कंटीनजेंसी प्लांस । और शहर अपनी गुप्त गतिविधियों में सतर्क रहा, मजबूत रहा । उसकी ताकत बड़ी ताकत थी । उसके मोर्चे अभेध्य । माँ की आँखें शहर की आँखें थीं, पड़ोसियों की आँखें थीं, परिचितों अपरिचितों की आँखें थीं जो एक जवान जहान लड़की के हर हरकत को, मासूम खतरनाक, तौलती हैं, देखती हैं । गुप्तचरों का विशाल नेटवर्क, हर हालत में, हर समय पर मुस्तैद । मेरे बारे में खबर जंगल की आग थी । बिन बाप की बेटी का हर कोई रखवैया । कोई दोस्त नहीं था, सब खबरी थे । मैं इन बियाबान बीहड़ में झुंड से अलगायी मेमना थी । बाबा तक अपने पोपले मुँह से जुगाली करते कहते , बबुनी माँ के बात मान लेवे के चाहीं ।
 
रात के अँधेरे में खिड़की की ठंडी सलाखों से गर्म गाल सटाये मैं खोजती थी उजाड़ पगडंडियाँ जहाँ मेरे पैरों के निशान विलीन हो जायें । लतरें जंगली बेल सब ढक लें ।
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मृदुल बोरठाकुर अपनी चपटी हँसी हँसकर कहता बिहू नाचेगी मेरे संग ? और मैं उसके संग जीवन का नाच नाचने निकल पड़ी थी । कौन थी मैं, कोई इसादोरा दंकन ?और वो कोई सर्गेई येसेनिन ? पर हवाओं का पँख पकड़ कर , बिना आगा पीछा सोचे उड़ चली थी । ट्रेन में बैठे उसकी दकोस्ता को लिखी चिट्ठी, “Mercedes, lead me with your little strong hands and I will follow you—to the top of a mountain. To the end of the world. Wherever you wish.” सोचती रही । 
 
Painting by Pratyaksha

मेरी जान फटाफट । लेकिन तब कहाँ मालूम था कि मृदुल दाकोस्ता तो हो नहीं सकता था न लिंग में न मानसिकता में । मैं ही कौन इसादोरा थी ? रात की नीली स्याह रौशनी में किसी एलिज़ाबेथन हिरोईन की तरह लबादा ओढ़े मेरे पैर इस अनजान रास्ते पर बेधड़क पड़े थे । शहर की दीवार अँधेरे में पल भर को भरभरायी थी । मैं कोई टाईम ट्रवेलर थी, कोई ऐयार थी । मेरा शरीर हवा हुआ था और दीवारों को पार कर गया था । शहर ने अपने टेढ़ेपन में, अपने बरसों के इतिहास में, कई कई अंतराल पर ऐसे अचक्के खेल खेले थे । और आज मेरे जीवन के लम्बे रास्ते पर यह तीखा मोड़ लेना था सो शहर ने फिर अपने दरवाज़े खोले । मृदुल बोरठाकुर बेचारा तो सिर्फ निमित्त था । उसका नाच मेरा नाच कब होता । पर कुछ शुरुआती टैंगो हमने किये  मालवीयनगर के बरसाती का एक कमरा । पनियाये थुकपा और बेस्वाद मोमो के बीच हमने एक दूसरे को जाना । हमारे शरीर ने एक दूसरे को पहचाना । हमारी आँखें एक दूसरे पर नहीं पड़ी पर हमारी उँगलियों की फूहड़ बेचैनी ने कोई पहचान की । घुप्प अँधेरे में आधे अधूरे कपड़ों सहित कुछ अनाड़ी कवायदों की नाकाम कोशिश । शुरु होने के पहले ही चुक जाना और बाद में बेहयाई से, निर्ममता से, ‘इट वाज़ हार्डली द ज़ेनिथ ऑफ पैशन, नो ?’ 

मैं मतलबी नहीं थी । कतई नहीं थी । पर थुकपा खा खा कर मुझे उबकाई आने लगी थी । मैं एक कूँये से आकर दूसरे कूँये में फँस रही थी । मृदुल दिन भर आवारागर्दी करता, रात पीकर बौराता रहता । हमारे पैसे तेज़ी से उड़ रहे थे । जितनी तेज़ी से पैसे खत्म हो रहे थे उतनी ही तेज़ी से हम एक दूसरे से घिना रहे थे । उसका लिजलिजा स्पर्श मुझमें वितृष्णा भर देता । विद्रूप से वह कहता, 
 
“यू आर नो जूलियेट बिनोश ,नॉट ईवन अ नाओमी कैम्पबेल । गेट बैक टू योर फकिन मिडिलक्लास सेट अप । गेट बैक गेट बैक यू ब्लडी फ्रिजिड बिच“। 
 
पैसे चुकने के ठीक दो दिन पहले वो गायब हो गया । दार्जिलिंग की शकुंतला तामंग, शैंकी ने बताया मृदुल को स्टेशन पर किसी ने देखा घर की ट्रेन पकड़ते हुये । शैंकी के कमरे में शिफ्ट हुये मुझे तीन हफ्ते बीत चुके थे । सुबह से शाम मैं जाने किस चीज़ की तलाश में शहर भटकती थी । कई बार इच्छा होती मृदुल की तरह घर की ट्रेन पकड़ लेने की । एक बार तो स्टेशन भी पहुँच गई थी । मेरे पूरे वजूद में अंधड़ उठता था । मैं रेगिस्तान थी । ठाँठे मारता रेत का सागर । इस बड़े शहर की अदृश्य दीवारें उस छोटे शहर के दृश्य दीवारों से कहीं ज्यादा मजबूत थीं ।लोगों की आँखें पहले मेरी छाती पर पड़ती फिर चेहरे पर उठतीं ।  आँखों को चेहरे से कोई मतलब नहीं था । वो टिकती थीं नीचे , घूमती थीं जैसे इलाके माप रही हों  स्टेकिंग प्रॉपर्टी । चमकीली बड़ी गाड़ियों में अधेड़ गंजे पुरुष चेहरा निकाल शालीनता से अंग्रेज़ी में पूछते, 
 
“केयर फॉर अ राईड“? कभी कभी किलर शार्क की फोकस से गाड़ियाँ पीछा करती धीमी रफ्तार, 
 
“कम ऑन बेबी, आ विल गिव यू अ गुड टाईम“। 
 

मेरी चप्पल का फीता टूट चुका था । मेरे बैग का हैंडल और मेरी वालेट का पैसा भी। और सबसे बड़ी और अहम बात थी कि मेरा मनोबल खत्म हो गया था । मेरी चमत्कारिक विलक्षण प्रतिभा दो कौड़ी की साबित हुई थी ।मैं विद्रोहिणी, मैं स्पार्टाकस की औलाद, ओह मेरी बीज ही कमज़ोर थी , डाइल्यूटेड ।शहर की जगर मगर करती सड़कों और दुकानों के बीच मैं लुप्त हो रही थी । मेरे अंदर की उर्जा चुक गई थी । मैं एक छोटे शहर से आई एक बेचारी कस्बाई बहन जी थी, बिन नौकरी के बिन सहारे के । शहर मुझे लीलने को तत्पर था । लड़के लड़कियों, आदमी औरत की भीड़ मेरे आसपास से, मेरे आरपार गुज़र जाती । मैं उँगलियाँ बढ़ाकर पकड़ में लेना चाहती थी ज़िन्दगी पर एक बेचारगी मुझे खोखला कर रही थी जैसे हवा खुली उँगलियों के पार से बस बह जाये । दिनरात मैं ठंड से , अनजाने जाने भय से काँपती रहती । मेरे पैरों के नीचे ठोस ज़मीन खत्म हो रही थी । बसों और ऑटों की चीख पुकार और धींगामुश्ती में मैं भीड़ की ठेलमठेल का बेचारा हिस्सा बन जाती । मेरी ठसक, मेरी ठाटदारी सब हवा हो गई थी । मेरी बाँहों में नीली नसें उभरने लगी थीं और पैरों के तलुओं में कड़े कॉर्न । मैं रानी राजदुलारी अब सड़कों की मलिका थी । इस शहर में मेरा कोई हितैषी कोई हमदम नहीं था ।

जब सब्र का सिरा चुकने ही वाला था तब एक हवा के झोंके सा संदीपन मिला था । जन संघर्ष समिति एक्टिविस्ट । 
 
“चलोगी, चोरमुंडा ?“
 
उसकी आँखों में आग थी । उसकी दुबली लम्बी साँवली काया किसी धनुष की तरह तनी रहती । सिगरेट पर सिगरेट धूँकता, खाँसता लम्बी बहसें किया करता । योजनायें बनती देर रात तक । मैं यहाँ सिर्फ संदीपन के लिये थी । वैसे भी मेरी दुनिया में और क्या था ? शैंकी का उधार और बेजान, निरुद्देश्य रास्ते । मेरे कॉम्प्लेसेंस को गंदे कार्पेट की तरह झटकार फेंका था  संदीपन ने । झोला उठाये हम निकल पड़े थे, सेकुआपानी, चोरमुंडा । भटकते रहे थे गाँव गाँव । आदिवासियों से बात करते लगातार । गुमला, गोड्डा, लालमटिया, जाने कहाँ कहाँ । गाँव के गाँव अक्वायर हो रहे थे । सरकारी परियोजना में । बड़ा बिजली का तापघर बनेगा । खुशहाली आयेगी । बिजली ही बिजली । दिन में भी लट्टू जलेगा । 
 
सर्वे चल रहा था । बीडीओ, गाँव के मुखिया, पटवारी, सर्कल ऑफिसर । पेड़ के नीचे , गाँव के चौपाल में, किसी सरकारी स्कूल के अधटूटे कमरों में खड़खड़ाती मेज़ और तीन पैरों की कुर्सी जोड़े पुराने नक्शे फैलाये, सिर जोड़े, महीन महीन अक्षरों में रजिस्टर भरे जा रहे हैं, ज़मीन की मिल्कियत की कहानी लिखी जा रही है । भीड़ की भीड़ धूप में पीढ़ियों से सब्र की कहानी जी रही है, मंगतू मुरमू और जगत हेम्बरम, पुनो एक्का और भोला मुंडा, पीटर मिंज और सुसन तिर्की । 
 
Painting by Pratyaksha

“कितना पैसा मिलेगा बाबू ?” सब यही पूछते हैं । “बंजर ढूह का भी उत्ता ही मिल जायेगा ।“

 
परियोजना के अधिकारी आते हैं यदा कदा । पहले लिस्ट बन जाये न पूरी । नये शब्द तैरते हैं हवा में, पैप्स और रैप्स । 
 
“क्या है ये ?” मैं संदीपन से पूछती हूँ । 
 
“पर्संस अफेक्टेड बाई प्रोजेक्टस और रिहैबिलिटेशन ऑफ प्रोजेक्ट अफेक्टेड पर्सनस”।संदीपन उत्साह से बोल रहा है ।” 
 
“सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट करने के लिये एक टीम आई हुई है, उनसे इंटरफेस करना है । फाइनल नोटिफिकेशन के पहले खातेदारों का नाम एक बार और वेरिफाई कर लें । क्या टाईमफ्रेम है इसका हिसाब किताब ? और फिर ग्रीवांस रिड्रेसल सेल का क्या ?” 
 
 उँगलियों पर काम गिनाता है एक एक । उसके बिस्तर के बगल में थाक की थाक किताबें हैं, आन्द्रे बेतिल और श्रीनिवास, दुर्खाईम और वेबर, मार्ग्रेट मीड और मलिनोव्स्की… एनपी आर आर की फोटोस्टैट कॉपी, रंगे हुये कागज़ आगे के कार्यवाई के ब्लूप्रिंटस । उसकी आवाज़ कमरे में बेचैन घूम रही है । कितना कितना करना बाकी है, कल परसों महीना भर बाद ।  मैं थकी हूँ , दिन भर की धूप धूल में । मोटा लाल चावल और बांस का अचार खा कर मन तृप्त नहीं हुआ है । संदीपन की बातों का आग बुझ रहा है । इतनी दुश्वारियाँ मेरे बस की कहाँ । मैं पुआल के ढेर पर ढलक जाती हूँ । संदीपन मुट्ठी की ओट बनाकर धूँआ फेंक रहा है । 
 
”हमें इन भोले आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़नी है । सही मुआवज़ा दिलवाना है । रिहैबिलिटेशन और रिएम्प्लयमेंट । गाँव में बिजली, स्कूल, दवाखाना । परियोजना के उच्च अधिकारियों से मिटिंग है, इस हफ्ते । तुम गाँव की औरतों से मिल लो, पूछ लो ।“ 
 
उसकी बातें चल रही हैं । ढिबरी की पीली रौशनी में मैं संदीपन से कुछ और चाहती हूँ । इस फूस के मड़ई में आज हम अकेले हैं वरना शिप्रा और रशीद भी होते हैं, बम बहादुर सिंह भी कभी कभार होते हैं । शिप्रा और रशीद हमारे साथ आये हैं । बमबाबू हजारी बाग से । साठ पैसठ साल के रिटायर्ड आदमी, किस जोश से काम करते हैं निस्वार्थ भाव । अच्छा समय कटता है, सही काम करते हैं । सफेद मूछों से छुपी ढकी बुदबुदाहट हवा में लटकी रहती है कुछ क्षण । कुछ और कार्यकर्ता भी बाई रोटेशन आते रहते हैं । 
 
”यहाँ का काम निपटेगा तो हम बोलनगीर नौपाद और कलाहांडी जायेंगे ।“ 
 
अँधेरे में बीड़ी की नोक जल बुझ रही है । यहाँ आकर संदीपन बीड़ी पर उतर गया है । इन रोम लिव लाईक रोमन्स। लेकिन मैं तो ऐसे नहीं रह सकती । मेरे पैरों में बिवाईयाँ फट गयी हैं । काली सूखी मैल भरी । मेरे बाल जट्टे से भरे हैं । कभी कभार पकड़ कर जूँ भी निकाल लेती हूँ । अरंडी के तेल सी महक आती है मुझसे । ओह, क्यों देखेगा संदीपन मुझे । पर उससे भी तो बीड़ी की बू आ रही है । उसकी दाढ़ी भी तो धूल से भूरी है । पर फिर भी वो जंगल का चीता दिखता है, चपल, फुर्तीला । उसके जंगली आँखों की लपक के पीछे पीछे तो मैं आई । मैं अपने मन की आग दोनों हाथों में भरे नींद के बीहड़ गुफा में उतर जाती हूँ । 
 

मड़ई की  दीवार पर कोई छाया डोल रही है । कारू माँझी के काले चिकने बदन पर चीता सवार है । लाल मिट्टी की धूल उड़ रही है । चीते के पंजे काले पत्थर पर खरोंच निशान बना रहे हैं । चीता हुँकार रहा है, कैसी विकृत आवाज़ । मैं भय से आँखें मून्द लेती हूँ, बाँहों में सर धँसा कहाँ घुस जाना चाहती हूँ । कानों में जँगल के ढोल नगाड़े बज रहे हैं और मेरे भय की , वितृष्णा की खट्टी लहर मेरे शरीर से फूट रही है । मैं हाथ बढ़ा उस गंध को रोकना चाहती हूँ । मेरे बढ़े लाचार हाथों को मानिक पुरकैथ थाम लेते हैं । 

डाक्टर कहता है , 
“मलेरिया का डिलीरियम है । पता नहीं सन्नीपात में क्या क्या बक रही थी।“
मानिक पुरकैथ परियोजना के अधिकारी हैं । इंडसट्रियल इंजीनियर । आर एंड आर पॉलिसी इम्प्लीमेंट कराने आये हैं । 
 
“उस दिन यही आपको जीप में लादकर प्रोजेक्ट अस्पताल लाये”, डाक्टर व्यस्त बाहर निकलते बोलता है । मानिक पुरकैथ ज़रा सा लाल पड़ जाते हैं । कुछ देर और चुप बैठते हैं फिर अस्फुट 
“आता हूँ “, कह चले जाते हैं । मैं कमरे की हरी स्कर्टिंग देखती हूँ , बिस्तरे की उजली चादर देखती हूँ, दीवार पर प्रोजेक्ट लोगो का उगता सूरज देखती हूँ, खिड़की के हिलते हुये पर्दे से बाहर की टुकड़ा भर दुनिया देखती हूँ । हफ्ते भर अस्पताल में हूँ । शिप्रा आती है, बम बाबू आते हैं । रशीद भी आता है । संदीपन नहीं आता । 
मानिक पुरकैथ रोज़ आते हैं । कभी कभी शाम को ब्रूस चैटविन पढ़कर सुनाते हैं । 

In the beginning the earth was infinite and murky plain,,,,,,,,on the morning of the first day, the sun felt the urge to be born… उसी शाम तारे और चाँद भी पैदा होते… तो ऐसा हुआ, उस पहली सुबह, कि हर निंदाये पूर्वज ने सूरज की गर्मी का दबाव अपने पोपटों पर महसूस किया और महसूस किया अपने शरीर से बच्चों को जन्म लेते हुये । सर्प पुरुष ने महसूसा साँपों को अपने नाभी से फिसलकर निकलते हुये… अपने गड्ढों के तलों पर आदिमानवों ने पहले एक पाँव हटाया फिर दूसरा । फिर उन्होंने अपने कंधों को सिकोड़ा फिर बाँहों को । उन्होंने अपने शरीर को मिट्टी कीचड़ से बाहर निकाला, झाड़ा। उनकी आँखें चट से खुलीं । उन्होंने अपने बच्चों को खिली धूप में खेलते देखा । उनकी जाँघों से कीचड़ गर्भनाल की तरह गिरा । नवजात शिशु के प्रथन रूदन की तरह फिर हर पूर्वज ने अपना मुँह खोला और कहा, मैं हूँ । और यही पहला और बाद का प्रथम कार्य था नाम रखने का  ।  सबसे रहस्यभरा और सबसे पावन पूर्वजों के आदिगीत का पहला दोहा ।और इस तरह उन्होंने गाया नदियों को, नालों को, पहाड़ों को, रेगिस्तानी ढूहों को । उन्होंने शिकार किया, भोज खाया, प्यार किया, नृत्य किया, मृत्यु दिया, पाया । जहाँ जहाँ वो गये उन रास्तों पर उन्होंने गीतों की पगडंडियाँ छोड़ीं । पूरे संसार को उन्होंने गीत के चादर में लपेट लिया । और जब पूरा संसार गा लिया गया , वो थक चले थे । उनके हाथ पैर में वर्षों की गतिहीनता पैठने लगी । कुछ वहीं जहाँ खड़े थे ज़मीन में समा गये । कुछ गुफाओं में बिला गये । कुछ अपने शाश्वत घरों में पानी के कुँओं में जहाँ से वो उत्पन्न हुये थे , विलीन हो गये । सब के सब आखीर वापस अंदर वहीं चले गये जहाँ से वो आये थे ।

मैं उनकी भारी गहरी आवाज़ के जादू में उतर जाती हूँ । रेशे सा छील छीलकर उलट पलट कर देखती हूँ । हथेलियों में बाँधकर रोक रखना चाहती हूँ । फिर कब आँखे झिप जाती हैं । मैं संदीपन को भूलना चाहती हूँ । अच्छा हुआ बोलनगीर गया । मैं मानिक पुरकैथ को अनझिप आँखों से देखती हूँ, मेरी देखाई पर लाल पड़ते हुये देखती हूँ । फिर उदास हो जाती हूँ । न मैं नाच सकी न जी सकी । मेरी सूखी कलाइयों की नीली रेखाओं पर किस सफर की इबारत और लिखी है यह पढ़ना चाहती हूँ । घर से निकले कितने महीने बीत गये पर न माँ की याद सताती है न बाबा याद आते हैं । ऐसे हारे हुये स्थिति में भी नहीं । जब बुलन्दी पर आऊँगी तब याद करूँगी । अभी यह लक्ज़री अपने को नहीं देना । मेरा गीत अभी अधूरा है । इसके सुर ताल सब भेंगे हैं । सब तरफ रफ एजेज़ । किसी रंदे से रगड़ घिस कर पूरे जीवन को चिकना करना है । पर क्यों । ऐसा भी क्या । पोरों पर रुखड़ा सा कुछ रात दिन लगता न रहे सिर्फ इसीलिये ? सिर्फ सिर्फ इसीलिये । ऐसे बेसहारे अकेलेपन में गर्म आँसू कनपटी पर बह कर रूखे बालों में जाने कब और कितना विलीन होते रहे हैं , ऐसा जानलेने वाला भी जब कोई नहीं तो इनका ऐसे बह जाने का भी क्या औचित्य । रात के गुम्म सन्नाटे में खुद ही अपनी कृश बाँहों को सहलाती हूँ , कभी छातियों को मुट्ठी में भर लेने का नाकाम प्रयास करती हूँ । ज़िन्दा हूँ इस भर के लिये । ठंडी बेजान, निर्जीव । मरे हुये मांस का लोथड़ा भर । किस गर्मी, किस उष्मा की तलाश में भटकती रही । लोहे के पलंग की सलाखें इतनी सर्द हैं । मैं अपने गर्म माथे को सटा देती हूँ । खिड़की से टुकड़ा भर अँधेरा अंदर आता है फिर धीरे से पूरे वज़ूद में पसर जाता है , सब तरफ । कोई कोना अछूता नहीं बचता । न रात में न सुबह को ।   
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“मुझे क्या सिखाओगी, ‘हो’ कि ‘मुन्डारी’ ? बोलती कौन सी भाषा हो “? मेरी मुस्कुराहट क्षीण है । उसकी हँसी फिक्क से खिलती है । बेआवाज़ दुहरी हो जाती है किसी अनजाने उल्लास से । ओह कैसा भोला सहज मन है इसका । मेरे कलेजे में टीस उठती है । कैसी तो हैरानी से देखती हूँ उसे । छह महीने के बच्चे को पीठ से बाँधे आई है मुझे देखने, पाँच कोस चलके । उसके गोदने से भरे हाथ को अपने हाथों में लेकर सहलाती हूँ । कितने कड़े रुखड़े हाथ । कैसा सुख मिल रहा है । आत्मा तक कुछ भीग जाता है । 
 
“दीदी बहुत जादा बीमार है “? 
 
बाहर किसी वार्डब्वाय से पूछ रही डुमरी के आवाज़ की विकलता कहीं मेरे मन के आसपास घूमती है मंडराती हुई चील जैसे । मुझे कोई छीज़ रहा है रेशा रेशा । 
 
रात आती है, दिन किसी फिसलती बहती नदी सा बह जाता है । सबके चेहरे गडमड होते हैं । कभी मृदुल अपने हाथों में चॉपस्टिक्स थामे मुझे धमकाता है, यू फ्रिजिड बिच, पर उसे शालीनता से परे हटा कर मानिक आँखें मून्दे किसी पूर्वज का आदिमगीत सुनाने लगते हैं । उस गीत पर जंगल में एक एक करके जानवर, पेड़ पहाड़ खड़े होते हैं और गाँव घर की औरतें झूम झूम कर नाचती हैं उसी संगीत के लय में । मैं भी उनमें से एक हूँ, एक हूँ । आहलाद के बहते धुन पर तैरती मैं फिर क्या देखकर हकबका जाती हूँ । पसीने से लथपथ क्या क्या बौराती हूँ रात दिन ।
 
सब सपना है यह क्या किसी ने नहीं बताया तुम्हें ? कोई लड़की कितना कितना भटकेगी । लौटो अब लौटो । बूढी के सन से सफेद बाल और काले झुर्रियाये चेहरे से कठोरता बरसती है । उसकी आँखे साँप की आँखें हैं । एकबार भी पलक नहीं झपकती । कूबड़ से दोहरा शरीर किसी जादू से सीधा कर अपनी उँगली मेरी ओर बढ़ाती है, लौटो लौटो । पीछे संदीपन हँसता जाता है बेतहाशा, कारू को अपने कँधे से सटा कर हँसता है । बूढ़ी टोटके का पत्ता और बूटी मेरे सिरहाने रखती है । उसकी पीठ फिर दुहरी हो जाती है । दरवाज़े पर मुड़कर एकबार देखती है , उँगली बढ़ा कर इशारा करती है । अँधेरा फिर गिरने लगता है । 
सुबह मैं बेचैन हूँ । “घर जायेंगी क्या “? मानिक पूछते हैं । “ मैं व्यवस्था करवा दूँगा ।“ 
राशिद कहता है , “मैं चलूँगा साथ ।“
“न”, मैं सर डुलाती हूँ । 
 
दरवाज़े पर बूढ़ी खड़ी है । मटमैले साड़ी के नीचे उसके काले रूखे पैर मैं देखती हूँ । बरसों पुराने पेड़ का सख्त छालभरा तना, मोटे अनगढ़ अंगूठे और उँगलियाँ । सब सीधे हैं उलटे नहीं । उसका चेहरा सख्त है । कुछ बोलती नहीं । बस आकर हथेलियों में मुसी तुसी पत्तों की पोटली मेरे सिरहाने रख, निकल जाती है । मेरी जीभ तालू से सट गई है । मानिक चुप खड़े हैं ।
 
मैं हकलाती हूँ, ”यह कैसे आई ?“ 
”कौन ? किसकी बात कर रही हैं ? “ 
“अभी भी डिलीरियम है शायद “, वो धीरे से सिर हिलाते हैं । 
” डुमरी को बुलवा दीजिये“, मैं बुदबुदाती हूँ । लम्बी साँवली डुमरी अपने बच्चे को पीठ पर लादे आयेगी सिर्फ मुझे देखने । जंगल का मीठा सहज लोक लेकर आयेगी अपने साथ । सब नैसर्गिक, स्वच्छ, साफ । साफ मीठा पानी । कितनी प्यास है । कैसे बुझेगी । मैं फूट फूट कर रोने लगती हूँ । मानिक घबड़ा गये हैं । 
 
रात बम बाबू रुके हैं अस्पताल में । कमरे में उमस लगती है । ऐसा बुदबुदा कर कुर्सी खींच बाहर कॉरिडोर में चले जाते हैं । बमबाबू के चेहरे में मुझे एक आश्वासन दिखता है । सफेद ऊपर को ऐंठी हुई बमपिलाट मूँछें । चेहरा एकदम क्रूर हो जाता अगर नाक ऐसी गोल मटोल न होती । छितरी हुई भौंहों के नीचे आँखें भी एकदम नेक । हर आधे घँटे में झाँक लेते हैं । 
 
“कुछ दरकार हो तो कहियेगा “। 
 
मेरे मुँह से आवाज़ नहीं निकलती । मैं कहती हूँ, यहीं आ जाईये, बैठिये, बताईये अपने बारे में, ले जाईये मुझे इस अस्पताल के उदास कमरे से बाहर । मेरे मुँह से आवाज़ नहीं निकलती । आधी रात बीत गई है । कॉरिडॉर में सपसप हवा बहने लगी है । खिड़की के शीशे सब दरके हुये हैं । बम बाबू कुर्सी अंदर कमरे में खींच लाये हैं । उनका सर एकतरफ ढलक गया है । आधा चेहरा नीचे बह गया है, ढीले माँस का पिंड । नाक से घरघराहट निकल रही है । उनकी बेखबर गहरी बेमत्त नींद से मुझे बेतरह इर्ष्या होती है ।
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महुये के फूलों पर मुझे संदीपन ले रहा है । उसके होंठ नशे से भारी हैं । मेरे हल्के हैं ।उसकी उँगलियाँ सख्त हैं , मेरे कोमल ।वो भारी है । मैं हल्की हूँ ।उसने अपना चेहरा मेरे चेहरे पर टिका दिया है, कोमल । उसकी त्वचा नमकीन है, सोंधी मिट्टी और काला पहाड़, कल कल बहता झरना । 
 
“मैं तुम्हें भोर की ओस देना चाहता हूँ, रात का अंधेरा भी”, उसके होंठ मेरे होंठों से कहते हैं । 

“और मैं तुम्हें अपने बालों की महक देती हूँ“, मैं बाल फैलाती हूँ ।

“मैं तुम्हें हवा देता हूँ और पानी “ 
”मैं अपने नाभि की गहराई, उसके फूल“, मैं महकती हूँ ।
 
“मैं तुम्हें अपनी सोच देता हूँ ।“
”मैं तुम्हें अपनी साँस “, मेरी साँस गुनगुनाती है । 
 
”मैं तुम्हें सोचता हूँ “ 
”मैं तुम्हें सोचती हूँ “
 
मैं हँसने लगती हूँ, धीमे धीमे ।
उसकी हँसी मेरी हँसी का हाथ थाम लेती है । 
 
मैं कहती हूँ, मुझे चकरघिन्नी दिलाओगे ? 
वो मेरी बाँह थाम लेता है । मैं हवा में नाचती हूँ । मेरे बाल खुल जाते हैं । मेरी बाँहें मेरे सर के पीछे आसमान थाम लेती हैं । वो मुझे थाम लेता है । 
”थम लो अब ज़रा “ वो मेरी साँसों को थाम कर कहता है । 
”थम गई ज़रा “ मैं साँसों को उसे पकड़ा कर कहती हूँ ।
मेरी साँस को हवा में फूँक कर कहता है, 
”अब?” 

”अब” , मैं जवाब देती हूँ । रात को मुट्ठी में भर कर मैं मसल देती हूँ । उसके चेहरे पर एक बार मसल देती हूँ ।

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“आज अच्छी दिखती हैं “ बमबाबू उबासी लेते हैं । 
“सेंटर से हो कर आयें हम ? “ फिर फटाफट निकल पड़ते हैं । 
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जाने ऐसे कितने दिन बीते । एक एक करके, एक के बाद एक । शहर लौटना फिर एक ठीक ठाक नौकरी तब जब उम्मीद न थी । पैसे, सुख साधन सब लेकिन फिर भी कुछ छूटा छूटा । कौन सी खब्त, कैसी सनक ? उतारा गया कपड़ा हो जैसे शरीर । गया हुआ मौसम हो जैसे मन ।
ओह! संदीपन हाउ आई स्टिल यर्न फॉर यू । 
 
बिदप्पा कहता है, “ही वाज़ अ कैड “ 
”नो, ही वाज़ गे “ 
 “सो?” 
”सो व्हाट? आई स्टिल यर्न फॉर हिम । मेरे अंदर कोई सुराख है जो भरता नहीं कभी ।“ 
”और मेरे सुराख का क्या? मेरा क्या? तुम क्या कब्बी समझेगा नहीं दिलनवाज़?  नेनु इनविज़िबल मैन अइपोतानु, नुव्वु नन्नु चूड़लेवू? मैं इनविसिबल मैन हो जाऊँगा और तुम देखोगी भी नहीं?” 
 
उसका ब्राउन मंकी फेस बुझ जाता है । 
जाने क्या क्या बोलता है यह छोकरा, मैं चीज़ें समेटती हूँ । थोड़ा सा जंगल मैं समेट लाई थी अपने साथ, अब वही खींच रहा है। क्या जाने उस बूढ़ी का टोटका हो कोई ।
 
“ओ बिदप्पा कांट यू सी, मुझे लौटना ही होगा“, बिदप्पा नाराज़ है मुझसे, बेतरह नाराज़ । 
“यू आर रनिंग आफ्टर हिम ।“ 
“नहीं ।”
“फिर मैं कंसीड करती हूँ“ ,
“इवन इफ आई वाज़ ही वुडंट हैव मी “ 
“लाईक यू वुडंट हैव मी“ 
मैं हँसी से दोहरी हो जाती हूँ । 
“क्या बिदप्पा, कभी तो मज़ाक छोड़ो, वरना एक दिन मैं सचमुच तुम्हारी बात सच मान लूँगी और तुम्हारे गले पड़ जाऊँगी“। मेरी हँसी रुकती नहीं । उसकी आँखें उदास हैं । फिर वो भी हँसने लगता है ।
 
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स्टेशन पर मुस्तैदी से मेरा सामान चढ़ाता है और प्लैटफॉर्म पर अंत तक हाथ हिलाता है । फिर गला फाड़कर चिल्लाता है, 
 
“दिलनवाज़ तुम बहुत अच्छी हो , नुव्वु चाला मंचीदान्वी ।“   
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Painting by Pratyaksha

(ज़मीन अक्वायर हो गई । गाँव वालों को खूब पैसा मिला । कुछ नशे में उड़ाया, कुछ दारू पर, कुछ औरत पर । कुछ बुड़ाया कुछ लुटाया । खूब खाया खूब पीया । पैसा पँख लगा कर उड़ा, मुर्गी जैसा, बत्तख जैसा, तीतर बटेर जैसा । गाँव जंगल जश्न मना महीनो दिन तक । इतना पैसा किसने देखा था । रात दिन नशा ही नशा । औरत का, दारू का, पैसा का । खेत भूले, जंगल भूले, गाय बकरी भैंस मुर्गी सब भूले । मछली का पोखर भूले, पेड़ के पखेरू भूले । ओझा गुनी सब भूले । जैसे पूरे गाँव में कोई भूलने की महामारी फैली । एक एक करके सब भूले । और जब सब भूल चुके और भूलना पूरी तरह से पूरा हुआ तब जाकर याद आना शुरु हुआ । सबसे पहले खेत याद आया , फिर जंगल याद आया । मछली, मुर्गी, भैंस याद आये । अपनी औरत याद आई, अपना बच्चा याद आया । पर याद तो आया, उससे क्या । जब याद आया तो लौटे । लौटे तो देखा कि लौटने की जगह नहीं । गाँव की ज़मीन बिला गई थी । मिट्टी के कोड़े गये ढूह थे, मशीन थी, कँटीली बाड़ थी । “नो ट्रेसपासिंग “ का बोर्ड था । ट्रैक्टर और भीमकाय क्रेन थे । जगह जगह “सरकारी सम्पत्ति“ का नोटिस था । पीले जैकेट और पीले सेफ्टी हेल्मेट में जाने कहाँ के मजदूर थे । अजब सी भाषा बोलने वाले ठेकेदार थे । जीप पर घूमने वाले सरकारी कर्मचारी थे । खाकी वर्दी वाले राईफलधारी सिक्यूरिटी गार्डस थे, तैनात, मुस्तैद । 

बाउंडरी वाल और चेनलिंक फेंस के बाहर खड़े भौंचक, नशे उतरे मर्द थे , झुँड के झुंड । बाड़े के अंदर हँकाये गये पशु । बस एक फर्क था, ये बाड़े के बाहर थे ।इनके पास अब कुछ नहीं था , न पैसा , न खेत । और इनको अपने अनुसार हाँकने के लिये जल्दी ही कुछ समाजवादी मोर्चों के कार्यकर्ता जुटने वाले थे , कुछ दलाल । इनकी आड़ में अपना उल्लू सीधा करने । ज़मीन के बदले नौकरी का नारा बुलंद करने वालों की भीड़ । कुछ को काम मिलेगा , साफ सफाई का , मेंटेनेंस का, बागवानी का, मजदूरी का । जंगल के स्वछन्द जीव को पालतू बनाने का । 
 
विकास के रास्ते पर इतना बलिदान तो हक बनता है साहब । प्रोजेक्ट के टेंपररी टाउनशिप के क्लब में बैठकर , सिगरेट के धूँये के छल्ले उड़ाते जाम से जाम टकराते , ब्लडी मेरी और जिन विद वोदका के नशीले घूँट भरते , टेनिस के एक गेम के बाद साहब लोग ऐसी कितनी गर्मागर्म बहस से अपना हाजमा दुरुस्त और भूख तीखा करेंगे। पत्रिकाओं और समाचारपत्रों में धुँआदार , तर्रार रिपोर्टिंग होगी । मेधा पाटकर और अरुँधती राय , सुंदरलाल बहुगुणा और बाबा आमटे को याद करेंगे । इंफ्रास्ट्रकचर दुरुस्त करने की बात होगी । चीन जब गये तब देखा अभी हम इंफ्रास्टक्चर में कितना पीछे हैं ,सड़क, बिजली पानी ।अमरीका और योरप तो खैर छोड़ ही दें अभी । ग्लोबल पावर होने के लिये पहला कदम क्या है, जैसी बहस एयरकंडीशंड कमरों में पसीना छोड़वायेगी । पर इन आदिवासियों को कौन याद करेगा ? 
 
कोई लड़की जो किसी लड़के के पीछे पागल होती वहाँ पहुँची और पागल हो गई उनके लिये? क्यों भई? क्यों भला? ऐसी बेवकूफी का मतलब क्या । अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर, मार्किन की मोटी साड़ी पहन कर गाँव में रहकर क्या कर लेगी आखिर? कोई डुमरी को पढ़ा देगी, किसी बूढ़े की हक की लड़ाई के लिये मानिक पुरकैथ के दफ्तर पहुँच कर लिखा पढ़ी करेगी, किसी का मुआवज़ा जल्दी मिल जाये इसकी लड़ाई लड़ेगी । अपने हिस्से का जितना बन पड़ता है उतना भर करेगी और क्या । बम बाबू  सोचते हैं ।खूब सोचते हैं आजकल । खूब खुश भी रहते हैं । खूब उल्लासित होने वाली खुशी नहीं । बस ठहरे हुये पानी जैसे स्थिर खुशी । आत्मा जुड़ा जाये ऐसी खुशी । चाय का पानी चढ़ाते हैं । सूरज डूबने को है । डूबते सूरज को ताकते हुये चाय पीने की खुशी, दिन भर के थकान से चूर होने की खुशी । साँझ ढल रही है ।बस ये लड़की आ जाये, दिन भर की थकी हारी होगी । बम बाबू स्नेह से सोचते हैं ।दूर प्रोजेक्ट टाउनशिप में जगरमगर बत्तियाँ चमचमा रही हैं । बाउंडरीवाल के इस पार अभी भी पीला मटमैला अँधेरा है ।)