हिंदी भाषा 

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भाषा, व्यक्ति-जाति-समाज की अभिव्यक्ति का साधन होती है। भाषा, गंगा की धारा का चिरंतन प्रवाह है जिसमे मार्गस्थ अनेक नदी नाले मिलकर विलुप्त हो जाते हैं। कहीं इसकी धारा अजस्र निर्मल होती है तो कहीं मणिकर्णिका घाट के मुर्दों की दुर्गन्ध के कारण इसका जल कुछ दूर के लिए अपेय हो जाता है। 

भाषा की आयु एक दिन की नहीं होती। अनेक संस्कृतियों-सभ्यताओं के प्रभाव की गंध इसमें इस प्रकार समाहित हो जाती है जिस प्रकार [फूल-माला को गूँथनेवाले कदली-सूत्र में पुष्पों की गंध स्वतः समाहित हो जाती है। गंध को सूत्र से पृथक करना दुस्साध्य (कभी कभी असंभव) हो जाता है। 

जातीय भाषा का विकास वैसे ही नहीं होता जैसे किसी जनपदीय भाषा का होता है। कोई जनपदीय भाषा ज्यो की त्यों जातीय भाषा बन जाये, ऐसे नहीं होता। किसी जनपदीय भाषा को मुख्य आधार बनाकर कोई जातीय भाषा विकसित होती है किन्तु उसमे अन्य जनपदो से भाषा तत्त्व आकर घुल मिल जाते हैं और आधार भाषा के रूप को काफी बदल देते हैं। इस तरह की प्रक्रिया हर जातीय भाषा के साथ घटित  होती है। कलकत्ता की मानक बांगला या पुणे की मानक मराठी किसी जनपद में वहाँ की ग्रामीण भाषा के रूप में नहीं बोली जाती है। न अब मानक अंग्रेजी ब्रिटेन के किसी जनपद की ग्रामीण बोली है। यह प्रकिया न समसझकर कुछ लोग हिंदी को कृत्रिम भाषा कहते हैं। यही हिंदी कृत्रिम है तो  जितनी जातीय भाषाएँ हैं वे सब कृत्रिम हैं।देहाती बोलियों से संपर्क फिर भी उनसे अलगाव, जातीय भाषा की यह द्वंद्वात्मक विशेषता है।

जितना ही विशद जातीय भाषा का क्षेत्र होता है, उतना ही अधिक उसके रूपों की संख्या होती है। इसका कारण यह है की एक केंद्र से फैलनेवाली भाषा को अन्य जनपद प्रभावित करते हैं। बनारस की हिंदी आगरे की हिंदी से भिन्न है, कारण यह कि बनारस की हिंदी भोजपुरी से प्रभावित है और आगरा की हिंदी ब्रजभाषा से।  इसी तरह इस समय की दिल्ली की भाषा पंजाबी से प्रभावित है और इलाहबाद की हिंदी अवधि से प्रभावित है। जब यह जातीय भाषा अन्य जातीय क्षेत्रों में पहुँचती है तो वहाँ की जातीय भाषाओं का प्रभाव ग्रहण करती है और अपना स्थानीय रूप बनाती है। इस तरह कलकत्ता की हिंदी और मुंबई की हिंदी का अपना अलग अलग रूप है। और जब कलकत्ता, मुंबई बड़े शहर नहीं बने थे, तब हैदराबाद का अपना दक्खिनी रूप निराला था। यहाँ बोल-चाल के स्तर पर जो भाषा व्यवहार में आती है, उसकी चर्चा है। भाषा के लिखित रूप में जो समानता देखी जाती है, वैसी बोल-चाल के स्तर पर भाषा में नहीं देखी जाती। नाटकों, उपन्यासों, आदि में कभी कभी लेखक इस रूपों का व्यवहार करते हैं। 

मानक हिंदी का विकास: अष्टाध्यायी, अंगुत्तर निकाय, महाभारत (भीष्म पर्व), ब्रह्म पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, वामन पुराण के  मध्यदेश में तेरह महाजन पद थे: कुरु-पांचाल, शूरसेन-मत्स्य, कोसल-काशी, वृजि-मल्ल (विदेह), मगध-अंग, चेदि-वत्स और अवन्ति। (ये जनपद आज की मानक हिंदी बोली-क्षेत्र को निर्धारित करते हैं)। इस सब जनपदों में कुरु जनपद विशेष महत्त्वपूर्ण था। यमुना से पश्चिम में सरस्वती और दृषद्वती के बीच का क्षेत्र कुरु-वन, कुरु-जांगल  या कुरु-क्षेत्र कहलाता था जिसे मनु ने ब्रह्मावर्त्त कहा है। इसे आर्यों का प्राचीनतम जनपद माना जा सकता है। यहाँ की वर्तमान बोली हरयाणवी या बाँगरू है।  यमुना के पूर्व का प्रदेश कुरु प्रदेश कहलाता है।  इसकी महाभारतकालीन राजधानी हस्तिनापुर थी। वर्तमान कोरवी का आदर्श रूप, हस्तिनापुर के आसपास की बोली माना जा सकता है। मध्यकाल में कुरु-जांगल तथा कुरु-जनपद की सम्मिलित राजधानी इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) थी। इसी कारण हरयाणवी तथा कोरवी में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है।

‘हिंदी’ शब्द का विकास: ‘हिंदी’ शब्द का विकास संस्कृत शब्द ‘सिंध’ से माना गया है :सं० सिंध > फ़ा० हिन्द। फ़ारस -वासियों ने हिंदी के निवासियों की भाषा को ‘हिंदी’ कहा। अरब-फ़ारस  के भारतीय राज्यों के विजेताओं के राज्य-प्रसार के साथ-साथ ‘हिन्द’ तथा ‘हिंदी’ का भी प्रसार होता गया । क्षेत्र की इस व्याप्ति के फलस्वरूप हिंदी न सिंध की भाषा रही, न पंजाब की, न दिल्ली और उत्तर प्रदेश की, बल्कि अरब फ़ारस विजेताओं के लगातार विस्तृत साम्राज्य की भाषा बनती गयी। इस दृष्टि से आज की हिंदी न मात्र सिंधी से विकसित है, न संस्कृत से, न फ़ारसी से, न पालि से, न प्राकृत से, न अपभ्रंश से, न राजस्थानी से, न अंग्रेजी से बल्कि इसे वर्त्तमान रूप में इन सभी तथा अन्य अनेक जातीय भाषाओं की सम्पृक्ति के फल-स्वरुप कौरवी की आधार शिला पर खड़ी स्वतन्त्र रूप में विकसित भाषा माना जा सकता है। अपने विकास की अनेक मंजिलों में इसने अरबी-फ़ारसी-अंग्रेजी आदि को जहां अनेक शब्द दिए हैं, वहाँ उनसे अनेक शब्द एवं भाषिक तत्त्व ग्रहण भी किये हैं। हिंदी-प्रदेश से अरबी में गए कुछ सब्दों का उदाहरण ये हैं: संदल<चन्दन; मस्क<मूषक; तम्बोल<ताम्बूल; काफ़ूर<कपूर; करनफल<कनकफल (लॉन्ग); फिलफिल<पिप्पली, पिप्पला; फोफल<कोबल, गोपदल; जायफल<जायफल; नीलोफर<नीलोत्पल; हेल<एला, इलायची; इत्रीफल<त्रिफला; बलीलह<बहेड़ा; हलीलज<हर्र, हरड़; बलादार<भिलावाँ; शीत <छींट; नीलज<नील: किर्मिज़<किरमिच; मोज <मोचा; नारजील<नारियल, नारिकेल; अम्बज<आम; लेमूं <निम्बू।  कुरान शरीफ में  मश्क (मुश्क या  कस्तूरी); जंजबील (सोंठ या अदरक) और काफूर (कपूर) जैसे तीन हिंदी प्रदेशीय पदार्थों के नाम आये हैं। हिंदी का बेड़ा शब्द अरबी में बारजा बन गया; डोंगी> दोनीज़ तथा होड़ी (बम्बइया शब्द)> होरी।  अंग्रेजी में भारतीय भाषाओँ से लगभग २,१०० शब्द गए हैं।  

हिंदी का विकास:हिंदी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, पश्तो, अंग्रेजी, पुर्तगाली, प्रांसीसी, स्पेनिश, डच आदि अनेक भाषाओं से शब्द आये हैं।  इनकी सूची बहुत लम्बी है।  आगत शब्दों की संख्या के आधार पर इनका क्रम इस प्रकार निर्धारित किया जा सकता है- अंग्रेजी, फ़ारसी, आरबी, तुर्की, पुर्तगाली, फ़्रांसीसी, पश्तो, स्पेनिश, डच।  इनके अतिरिक्त इस भाषा ने सिंधी, पंजाबी, गुजरती,  मराठी,उड़िया, बांग्ला, द्रविड़, एवं मुंडा आदि जातीय भाषाओं से भी शब्द ग्रहण किये हैं।  कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं- कर्ण, धर्म, ज्ञान (संस्कृत), कान्ह, चन्द, चाँद, चांदी, पत्ता, पात, आग, आम, साँझ,  बूँद,नींद (पालि-प्राकृत-अपभ्रंश आदि); अनार, कमीज़, कलम, कारख़ाना, कारीगर, किताब, कुरता, ख़ुशामद, चादर, जलेबी, जिल्द, ताज़ा, दवात, नक़द, नफ़ा, नुकसान, प्याला, बर्फी, बादाम, बेईमान, बेकार, मज़दूर, शिकायत, सिफ़ारिश, सुराही (अरबी-फ़ारसी); उजबक, उर्दू, कलगी, काबू, कुली, कैची, गलीचा, चाक़ू, चिक, तमगा, तोप, दरोगा, लाश, सौग़ात (तुर्की); पठान, रोहिला (रोह=पहाड़) (पश्तो); कनस्तर (पुर्तगाली); सांई (सिंधी); लहँड़ा (पंजाबी); कोड़ी (संथाली); काफ़ी (तमिल); पिल्ला (तेलुगु); मोती=बड़ी (गुजराती); उपन्यास, गल्प (बांग्ला) आदि। 

ध्वनि एवं रूप-रचना: हिंदी भाषा ने अन्य भाषाओं से केवल शब्द ही ग्रहण नहीं किए बल्कि ध्वनि एवं रूप-रचना का प्रभाव भी इस भाषा पर पड़ा है। इस भाषा ने फ़ारसी से क़, ख़, ग़, ज़, फ़ तथा अंगड़ाई से ऑ (डॉक्टर), फ (सेफ्टीरेज़र, ऑफिस) ध्वनियाँ, संस्कृत के लगभग सभी उपसर्ग और प्रत्यय, फारसी के आन, हा (बहुवचनसूचन); फ़ारसी-आरबी आन (बहुवचनसूचक) प्रत्यय (कहीं बहुवचन में, कहीं एकवचन में प्रयुक्त) जैसे- साहेबान, बारहा, कागज़ात, देहात; तर, तमार्थी फ़ारसी प्रत्यय= तर-तरीन बदतर, बेहतरीन, हिंदी में प्रयुक्त होते हैं।  भोजपुरी के प्रभाव के कारण परसर्ग ‘ने’ के प्रयोग का लोप किया है या कही-कही गलत प्रयोग। आजकल पंजाबी के प्रभाव के कारण हिंदी में ‘ने’ परसर्ग के गलत प्रयोग की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है जैसे- “मैंने घर जाना है।“’ ब्रज के प्रभाव से पास के स्थान ‘पर’ या ‘पै’ के प्रयोग मिलते हैं जैसे- उस पर कपडा नहीं है, उनपै धोती नहीं है, आदि। 

वाक्य-रचना: वाक्य-रचना की दृष्टि से हिंदी, फ़ारसी तथा अंग्रेजी से प्रभावित रही है। हिंदी की समास रचना प्रवृत्ति पर कहीं कहीं फ़ारसी प्रभाव दिखाई पड़ता है, जैसे- लीक-पखान (लीक-पखान पुरुष कर बोला- जायसी); कलक्टर अलीगढ़; हरी ओध आदि।  ‘जो’ युक्त वाक्यों के प्रयोग काल्डवैल द्रविड़ प्रभाव मानते हैं। प्राकृत पैंगलभ  में ‘जो चाहहिं सो लेहि’ प्रयोग है। हिंदी में इस प्रभाव की वृद्धि का कारण फ़ारसी प्रभाव है। हिंदी में एकवचन के लिए आदरार्थ बहुवचन का प्रयोग  फ़ारसी प्रभाव के कारण है।  हिंदी के आकारांतेतर विशेषणों की विशेष्य के अनुसार अपरिवर्तनीयता के प्रभाव के पीछे भी फ़ारसी प्रभाव दिखाई पड़ता है क्योंकि फ़ारसी में व्याकरणिक लिंग का अभाव है।  हिंदी की संज्ञा एवं विशेषण के योग से निर्मित नामिक क्रियाएँ फ़ारसी का अनुबद्ध हैं जैसे- तंग करना (फ़ा. तंग कर्दन), खुश होना (फ़ा. खुश शुदन) । हिंदी में क्रिया से पूर्व क्रियाविशेषण के प्रयोग पर फ़ारसी प्रभाव है जैसे ‘वह जल्दी जल्दी बोल रहा था।’ (फ़ा. ऊ बितुंदी मी गुफ्त)। संस्कृत में क्रियाविशेषण का कोई स्थान निर्धारित नहीं था। समुच्चयबोधक ओर के प्रयोग पर संस्कृत का प्रभाव न होकर फ़ारसी प्रभाव है। संस्कृत में ‘ च’ का प्रयोग योजना के लिए बाद में होता था जैसे ‘श्यामा शिवश्च’ जबकि फ़ारसी में इसका प्रयोग शब्दों के मध्य होता है जैसे – अल्लाह-उ-करीम। ‘कि’ का प्रयोग भी फ़ारसी से हिंदी में आया है। चूँकि, ताकि, जोकि, बशर्ते कि, आदि का प्रयोग फ़ारसी से हिंदी में आया है। इसी प्रकार ‘या’ का प्रयोग भी फ़ारसी प्रभाव के कारण हिंदी में आया है। 

मध्ययुगीन पांडुलिपियों में मूर्धन्य ‘ष’ के स्थान पर ‘ख’ का प्रयोग ‘भाषा’ को ‘भाखा’ कर देता है। इसी प्रकार कभी कभी फ़ारसी लिपि के प्रभाव के कारण खान>कहान; छान>चहान ; घान >गहान ; झाड़ >जहाड़ ; ठाँव >टहांव ; ढाल >डहाल ; थाती >तहाती ; धन>दहन ; परस> पहरस; भोली>बहोली हो गया है। जिससे कभी कभी अर्थगत भ्रांतियां उत्पन्न हो जाती हैं।

अंग्रेजी प्रभाव के कारण हिंदी में ‘बाई’ के फलस्वरूप ‘के द्वारा’ का आगमन हुआ। पहले इस प्रकार का प्रयोग नहीं होता था जैसे – ‘यह बात उन्होंने कही है’ अब यह कहा जाता है ‘यह बात उनके  द्वारा कही गयी है।’ . अंग्रेजी ‘the’ के अनुवाद -रूप हिंदी में समधिक प्रयोग ‘वह’ का प्रचलन हुआ। उदाहरणार्थ- The men went there ‘वह आदमी वहां गया’। अंग्रेजी की direct तथा indirect स्पीच के कारण ‘मैं’ के स्थान पर ‘वह’ का प्रयोग किया जाने लगा। जैसे ‘उसने कहा कि  मैं जाऊंगा’ के स्थान पर अब– ‘उसने कहा कि वह जायेगा’ का प्रचलन होता जा रहा है। अंग्रेजी के प्रभाव से वाक्य में बल के कारण पद-क्रम बदल जाता है जैसे– ‘मैंने उसे विद्यालय में घूसों से खूब मारा’ तथा ‘घूसों से मैंने उसे विद्यालय में खूब मारा’। पहले वाक्य में ‘मैंने’, पर बल है, दूसरे में ‘घूसों’ पर। अंग्रेजी के ‘आइदर-ओर’ के फलस्वरूप हिंदी में ‘या…या’ का प्रयोग होने लगा है। संस्कृत में ‘या’ के स्थान पर ‘वा’ हो जाता है। फ़ारसी से हिंदी में आगत ‘और’ का विकसित रूप अंग्रेजी के प्रभाव के कारण है। अंग्रेजी ने हिंदी को पंक्चुएशन मार्क दिये। अंग्रेजी से पूर्व हिंदी में विराम चिन्ह (।), या (।।) के रूप में लगाये जाते थे। अंग्रेजी ने हिंदी को व्यवस्थित गद्य रूप तथा अनेक गद्य-विधाएँ प्रदान कीं।

अंग्रेजी लिपि के प्रभाव से हिंदी का ‘पुर /पुरा’ (जागपुरा महाराज); सिद्ध, सिध >सिढ़; (सिधपुर >सिढ़पुरा); ड >द (भडुवा >भदुवा) बन गया। यही नहीं गुप्त>गुप्ता; मिश्र>मिश्रा हो गया (यानि पुरुष से स्त्री)। लड़कियों तथा लड़कों के नाम एक से होते लगे उदाहरणार्थ— रमेश बहल (स्त्री), सुमन सिंह (स्त्री), सीता (पुरुष), माया (पुरुष) आदि। 

फ़ारसी तथा अंग्रेजी से अनेक वाक्यांश-जल्द से जल्द (जल्द-अज-जल्द); नए सिरे से (अज-सर-ए-नो), वस्तुतः, तत्त्वत: (actually); अपेक्षाकृत (comparatively); मुहावरे—दांतों तले उँगली दबाना (अंगुश्त-ब-दन्दां), जान की बाज़ी लगाना (बाज़ि-ए-जान-करदन); दांत खट्टे करना (दंदा,  तुर्श-करदन); प्रकाश डालना (throw light); आँखों में धूल झोंकना (throw dust into eyes); लोकोक्तियाँ- हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा, नीम हकीम खतर-ए -जान, नीम मुल्ला खतर-ए-ईमान ( फ़ारसी), भौंकनेवाले कुत्ते काटते नहीं (barking dogs seldom bite); प्रेम और लड़ाई में सब कुछ उचित है (All is fair in love and war) आदि हिंदी में आये हैं। 

हिंदी, मेरे विचार से किसी महानगर की भाषा जैसी है। इस भाषा के निर्माण में आज लगभग सम्पूर्ण विश्व का योगदान है। आज हिंदी विश्व-भाषा का स्थान ग्रहण करने जा रही है। इस भाषा का आधार अवश्य कौरवी भाषा है, किन्तु मानक हिंदी आज न कौरवी है, न फ़ारसी, न अंग्रेजी, बल्कि भारत के नगरों — ‘पटना, उज्जैन तथा दिल्ली के विशाल त्रिकोण में बसनेवाली जाति की भाषा है’ जिस पर भारत की सम्पूर्ण जनपदीय भाषाओं तथा विश्व की सभी समृद्ध जातीय भाषाओं का प्रभाव है। इस भाषा की सम्प्रेषणीयता का अंकन मात्र संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश की कसौटी पर करना भ्रांतिपूर्ण है। अर्थ के धरातल पर आज इसकी संपृक्ति सम्पूर्ण विश्वजनीज समृद्ध जातीय भाषाओं जैसे अंग्रेजी, फ़ारसी, रुसी, जापानी, जर्मन, चीनी, आदि से है। आज लगभग सभी विकसित जातीय भाषाओं के साहित्य का अनुवाद हिंदी में हो रहा है और हिंदी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उनके प्रभाव अपना कर अपने स्वरूप को पुष्ट एवं समृद्ध बनाती जा रही है। जिस दिन इसकी प्रभाव व ग्रहण करने की क्षमता रुक जाएगी, उस दिन इसकी सम्प्रेषणीयता के आयाम सिमटते जायेंगे और यह नितांत अकेली रह जाएगी।

यदि ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से इस पर विचार किया जाये तो हिंदी न हिन्दुओं की भाषा है, न मुसलामानों की। एक अरबी कविता में ‘हिन्द’ शब्द का वही स्थान है जो फ़ारसी में लैला और शीरीं  का है। हिन्दु-ए-चश्म (आँख की पुतली) में ‘हिन्दु’ शब्द का अर्थ ‘पुतली’ या ‘प्यारी’ इस तथ्य को ध्वनित  करता है। अमीर खुसरो ने बड़े गर्व के साथ कहा था: 

चू मन तूतीये हिन्दम अर रास्त पुर्सी। 

ज़े मन हिन्दुई पुर्स, ता नाज़ गोयम।।

(मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ, मुझसे इसमें (हिन्दुई ) में पूछ। यदि मुझसे हिन्दुई में पूछेगा तो नाज़ से बताऊंगा।)

उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर इकबाल का तराना-ए -हिन्द भारत के प्रति उनकी असीम आस्था का प्रतीक माना जा सकता है। अंग्रेज़ों की भेद-नीति ने हिंदी तथा उर्दू को दो पृथक भाषाएँ बना दिया। फोर्ट विलियम कालेज में उर्दू-हिंदी अध्यापकों की नियुक्ति और गिल क्राइस्ट के स्पष्ट निर्देश (उर्दू में अरबी-फ़ारसी के शब्द अधिक हैं और हिंदी में संस्कृत के) के पश्चात हिंदी तथा उर्दू दो पृथक भाषाओं का रूप लेती गयीं। मेरे विचार से कुछ व्याकरिणक रूपों को अलग कर दें तो दोनों भाषाओं की सम्प्रेषणीयता में मूलभूत एकता है।  इन दोनों ही भाषाओं का जन्म भारत की मिटटी से हुआ है और यहाँ की मिटटी की गंध इससे पूर्णतः ओतप्रोत है।

भाषा समाज को मानव समाज कहना उपयुक्त नहीं। संस्कृत ने भारत के अनेक भाषा समाजों को एक सूत्र में आबद्ध किया। भाषा पूर्वजों द्वारा प्रदत्त आवास-रूप में होती है। यदि सांस्कृतिक-सामाजिक विप्लव के कारण सामाजिक आवास नष्ट हो जाये तो भी उसके पास पूर्वज प्रदत्त आवास (भाषा) बराबर रहता है जो उसे पुनः अपने लोगो की आत्मीयता प्रदान कर देता है। यह उसे पुन: अपने लोगों से जोड़ देता है। पंजाब के विस्थापितों ने अपनी पूर्वज प्रदत्त भाषा के माध्यम से आज लगभग सम्पूर्ण भारत में अपना समाज बना लिया है। 

सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से यह कहा जा सकता है, “हिंदी की सम्प्रेषण क्षमता विश्वजननीन भाषा समाजों की संपृक्ति के माध्यम से जहां एक ओर लगतार विकसित हो रही है वहीं  दूसरी ओर यह उन्हें भारत के आकाश-अग्नि-वायु-जल-पृथ्वी तत्त्वों के शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध से भी परिचित कराती जा रही है। पारस्परिक सम्प्रेषणीयता का  आदान-प्रदान इसे निश्चय ही एक दिन विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करेगा।  उस समय इसका व्याकरणिक रूप चाहे  जैसा भी हो किन्तु इसमें सही, उपयुक्त, तथा बुद्धिमत्तापूर्ण विचारों का समावेश हो सकेगा। इसमें उस समय सम्पूर्ण विश्वजनीन तर्क तथा कारण समाहित हो जायेंगे। भाषा की इस तीव्र गति में सब कुछ गतिशील दिखाई पड़ेगा, जिस प्रकार तेज़ दौड़ते समय सारे पेड़ पौधे हमारे साथ दौड़ते प्रतीत होते हैं। धीरे चलते समय सब कुछ सामान्य दिखाई पड़ता है

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डॉ० रामविलास शर्मा, भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी (भाग1), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1979, पृ० 237 

हिन्दीशब्द की व्युत्पति: जैसे इस परिच्छेद के शुरू में कहा गया हैहिन्दीशब्द का विकास संस्कृत शब्दसिन्धसे माना गया है : सं सिन्ध> फ़ा हिन्द/ फ़ारस के लोग हिन्दुस्तान अर्थात भारत के लिएहिन्दशब्द का प्रयोग क्यों और कैसे करने लगे थे, इस संबंध में एक अत्यंत रोचक तर्क दिया जाता है। आरम्भ में एक पाश्चात्य भाषाशास्त्रों नेहिन्दीशब्द की व्युत्पत्ति की खोज करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि संस्कृत काफ़ारसी मेंउच्चित होता है। अर्थात संस्कृत के शब्दों में आने वालाअक्षर फ़ारसी मेंकी ध्वनि दे करही बोला जाता है। उन्होंने ने कहा कि आरम्भ में जब फ़ारस और भारत का संबंध स्थापित हुआ तो फ़ारसी लोग सिन्धु नदी तथा उस के दोनों तटों पर फैले सिन्धु प्रदेश तक आए और उपर्युक्त भाषाशास्त्रीय नियम के अनुसार मजबूर हो करसिन्धुऔरसिन्धकोहिन्दुऔरहिन्दकहने लगे। बाद में, धीरेधीरे यहहिन्दशब्द संपूर्ण भारत के लिये प्रयुक्त होने लगा। फ़ारसी लोग हिन्द के निवासियों कोहिन्दूकहने लगे। फ़ारसी मेंहिन्दूशब्द का अर्थ हैइस्लाम धर्म के माननेवाले हिन्द वासी

इस व्युत्पत्ति के संबंध में जब यह शंका उठाई गई कि सिन्धु प्रदेश ही तो सारे भारत का द्योतक नहीं है, फिर सारे भारत और भारतवासीमात्र के लियेहिन्दऔरहिन्दूशब्दों का प्रयोग क्यों होने लगा, तो इस मत के सम्रर्थकों ने यह तर्क दिया कि मुसलमानों ने पहला आक्रमण सिन्ध पर ही किया था। अतः अपने उच्चारण की मजबूरी के कारण वे लोगसिन्धकोहिन्दकहने लगे।डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी को भी राजस्थानी की कुछ बोलियों में पूर्व बंगाल की बँगला, असमिया, नेपाली, मराठी, गुजराती भाषाओं में ऐसे उदाहरण मिले हैं जिन मेंका उच्चारणहो जाता है। ग्रिर्यर्सन के अनुसार कश्मीरी भाषा में भीवर्ण की प्रधानता मिलती है।

लिखित अभ्यास के लिये प्रश्न :

. आपके अनुसार क्या अंत में जो निष्कर्ष निकाला गया है, वह ठीक है या नहीं?

. क्या आपकोहिन्दीशब्द से संबंधित कोई दूसरी समस्या मालूम है?

. चार शब्दों में से ठीक शब्द चुनकर रिक्त स्थानों कॊ भरिये :

  • अर्थ कई प्रकार के होते हैं, जैसे संरंचनार्थ, मुख्यार्थ, लक्ष्यार्थ, व्यंग्यार्थ, व्याकरणिक अर्थ तथा शैलीय अर्थ………………/
  1. इत्यादि                         ) और दूसरे
  2. आदि                           ) आदि तक
  • इसी तरह का एक अर्थसामाजिक अर्थभी होता है, जिसे समाज स्तरों से जोड़ कर सामाजिक अर्थ कहा जा सकता है। यहाँ हिन्दी के सामाजिक अर्थ पर थोड़े…………….से विचार किया जा रहा है।

क) व्यापक                          ) विस्तार

ख) विस्तृत                          ) विशालता

  • भाषा समाज में जनमती है, समाज में प्रयुक्त होती है, अतः किसी समाज की संरचना और उसमें प्रयुक्त भाषा की संरचना में काफ़ी……………….होती हैं।

क) विभिन्नता                         ) सम्मानता

ख) अंतर                              ) समानताएँ

  • यदि ऐसा हो तो वह भाषा उस समाज की………………और चिन्तन के साधन के रूप में काम नहीं दे सकती।

क) स्पष्टीकरण                         ) व्यक्ति

ख) अभिव्यक्ति                         ) वर्गीकरण

  • हिन्दी समाज पर ऐतिहासिक…………….. से हम विचार करें तो वैदिक और लौकिक संस्कृति के बोलने वाले समाज में स्तरभेद था, तो, किन्तु काफ़ी सीमित था।

क) परिप्रेक्ष्य                           ) साक्षी

ख) तत्वों                              ) दृष्टि