प्रो. आनंद तेलम्बुडे
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ऐसा नहीं है कि प्राचीन काल में दुनिया के दूसरे हिस्सों में सामाजिक स्तरीकरण नहीं पाया जाता था, लेकिन भारत के बारे में मौलिक बात यह थी कि यहां उसे धार्मिक मान्यता मिली हुई थी और इसके स्रोत दैवीय माने जाते थे। आम मान्यता यह है कि वर्ण-व्यवस्था ही बाद में जाकर तमाम जातियों के रूप में विकसित हुई। एक कहीं ज्यादा विश्वसनीय विचार यह है कि इस उपमहाद्वीप में विचरने वाली घूमंतू जनजातियों ने जब खेती करने के लिए अपने-अपने ठिकाने बनाए और बसावट हुई, तो उन्होंने ऐसा करने के क्रम में अपनी जनजातीय पहचान खो नहीं दी, जैसा कि और जगहों पर हुआ था। इस अनोखी विशिष्टता की एक वजह इस उपमहाद्वीप को मिली कुदरती नेमतों में देखी जा सकती है। यहां भरपूर उपजाऊ समतल मैदान था, अच्छी धूप होती है और बारिश भी नियमित व पर्याप्त थी जिसके कारण जनजातीय परिवारों के लिए जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर खुद को बचाए रखना मुमकिन था जबकि दूसरी जगहों पर ऐसा नहीं था। मसलन योरोप में, जहां धूप कम होती है, बारिश भी अनियमित है और ठंड बहुत ज्यादा पड़ती है, लोगों की फौज को काफी बड़े भूखंड पर काम में लगाना एक मजबूरी थी। इसी ने वहां दास प्रथा को जन्म दिया। जातियां और कुछ नहीं थीं, बल्कि यही बसी हुई जनजातियां थीं जिन्होंने अपने-अपने कुलचिह्न बचाए रखे थे और जिसका अस्तित्व वर्णों के उद्भव से पहले का है। इनका रिश्ता बाद में इनके पेशे से जुड़ गया जो कि सामाजिक अनुक्रम से मुक्त था। जब बाहरी लोग यहां आए, चाहे जहां से भीआए हों(संभवत: वे फारस से आए थे), तो अपने साथ वे वर्ण-व्यवस्था लेकर आए थे जो आरंभ में तीन वर्ण थे और फिर चार हुए। इस वर्णक्रम को यहां पहले से मौजूद जातियों के ऊपर थोप दिया गया और इस तरह जातियों में अनुक्रम पैदा हुआ व इस व्यवस्था को धार्मिक मान्यता मिली। जातियों के उद्भव के लिए मैं इसे एक संभावित प्रस्थापना के रूप में देखता हूं।
जातियों की अनुक्रमणीय संरचना के तौर पर भले ही वर्णक्रम के ढांचे को स्वीकार किया जाता हो, लेकिन सच्चाई यह है कि इस उपमहाद्वीप के किसी भी हिस्से में शायद ही ये दोनों कहीं भी मेल खाते थे। एक समानता जो मिलती है, वो थी पुरोहित जातियों की मौजूदगी और श्रमिक (शूद्र) जातियों व अस्पृश्यों की बहुतायत में। उपमहाद्वीप के सभी हिस्सों में क्षत्रिय और वैश्य के मध्यवर्ती वर्ण नहीं पाए जाते थे। मसलन, महाराष्ट्र में क्षत्रिय और वैश्य वर्ण नहीं हैं। राज्याभिषेक के वक्त शिवाजी को राजपुताना के राजपूतों के वंश से होने का दावा करना पड़ा था और अपने शासनकाल में उन्हें (खजाने आदि के प्रबंधन के लिए) गुजरात से वैश्यों को बुलवाना पड़ा था। वर्णक्रम के भीतर जातियों की संख्या बढ़ती गई और नए-नए पेशे उभरते गए जिसमें नए लोग जुड़ते गए। इसमें वर्ण व्यवस्था के अनुक्रम की अवधारणा को अपनाया गया जिसके शीर्ष पर ब्राह्मण था। जातियों की यह गुणात्मक वृद्धि जाहिर तौर पर श्रमिक वर्ण में हुई। अस्पृश्यों का अस्तित्व बड़ा रहस्यमय रहा है क्योंकि उन्हें कभी-कभार पांचवें वर्ण या अवर्ण या विजातीय के तौर पर गिना जाता रहा है। बाबासाहब आंबेडकर ने इनके लिए ‘ब्रोकेन मेन’ का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जिसे विद्वानों का समर्थन नहीं मिला। वर्णक्रम के भीतर अपने दमन के खिलाफ उनका प्रतिरोध ही शायद वजह रहा कि दूसरी जातियों की उनसे नफरत बनी रही। इनका स्रोत चाहे जो हो, जाति व्यवस्था के ये सबसे अहम अंग हैं।
करीब एक सहस्राब्दि तक ब्राह्मणवाद विरोधी बौद्ध और जैन विचारधाराओं के वर्चस्व के बावजूद जातियों ने खुद को बचाए रखा और वे आम लोगों के जीवन जगत का हिस्सा बनती गईं। जाति प्रथा को सबसे पहली चोट इस्लामिक शासन में 11वीं से 17वीं शताब्दी के बीच लगी जब उसने उपमहाद्वीप में अपने पैर जमा लिए थे। निचली जातियों में इस्लाम की धार्मिक-सांस्कृतिक अपील के अतिरिक्त मुस्लिम शासन अपने साथ एक आधुनिक सामंती व्यवस्था लेकर आया था जिसने भू-राजस्व प्रशासन को व्यवस्थित किया, निर्माता शिल्पीसंघों (मैन्युफैक्चरिंग गिल्ड्स) का प्रसार किया और शहर बसाए, जिनके चलते निचली जातियों को ग्रामीण व्यवस्था के बंधनों से बाहर निकलने में आसानी हुई। एक बाहरी सभ्यता होने के नाते, जिसमें जन्म आधारित अधिकारों की कोई जगह नहीं थी, और निचली जातियों के इस्लाम में प्रवेश के चलते ऊंची जातियां इस्लाम से दूर ही रहीं। बाद में हालांकि भौतिक लाभ के लिए वे भी इस्लाम की ओर आकर्षित हुईं और मुस्लिम बन गईं। इसने मुस्लिम समाज में भी ऊंच-नीच को पैदा कर दिया।
जाति विरोध की नई लहर
इस दौर में जाति विरोधी एक और लहर चली जो भक्ति आंदोलन था। इसका जन्म दक्षिण में छठवीं और सातवीं सदी के बीच हुआ। भक्ति आंदोलन कोई संगठित आंदोलन नहीं था लेकिन अपनी कुछ परिवर्तनकारी धाराओं जैसे कबीरपंथ में इसने जाति के बरअक्स एक विद्रोह को प्रतिबिंबित किया। इसने रविदास और चोखामेला जैसे कई निचली जातियों के लोगों को संत की स्थिति तक पहुंचा दिया और जाति के आधार पर लोगों में फर्क नहीं बरता। भले ही ये व्यक्ति दलित समुदायों पर थोपे गए जातिगत बंधनों को तोड़कर भक्त बने, लेकिन इनकी भूमिका जातिगत आचार की आलोचना और मनुष्यों के बीच बराबरी के उपदेश देने तक ही सीमित रही। समाज पर इनका असर बहुत सीमित था क्योंकि ये आध्यात्मिकता के प्रचारक थे और मुक्ति के लिए मोक्ष का नुस्खा देते थे। बाद में पंद्रहवीं सदी में सिख पंथ का जन्म भक्ति आंदोलन और इस्लाम के आदर्शों को मिलाकर हुआ- जिसने सीधे तौर पर जातिभेद के उन्मूलन का वादा किया- और पंजाब के दलितों ने दौड़ कर इसे गले लगाया। हालांकि सिख पंथ ने दलितों के बीच मजहबी सिख और रविदासियों को जन्म देने के अलावा और कोई बड़ा फर्क नहीं डाला।
जाति प्रथा को सबसे तगड़ा झटका अंग्रेजी औपनिवेशिक राजकाज में लगा। इसका असर मुख्यत: तीन तरीकों से हुआ: एक, अपने औपनिवेशिक राज को मजबूत करने के लिए अंग्रेजों ने जातीयता आधारित दस्तावेजीकरण और जाति आधारित जनगणना की शुरुआत कर दी जिससे उस जाति अनुक्रम को रूढ़ बना दिया जो अब तक लोगों के जीवन जगत में प्रवाहमान स्वरूप में बना हुआ था। दूसरे, अपनी सेना, पुलिस, कानून, न्यायपालिका और कारोबारों में अंग्रेज राजकाज का पश्चिमी ढांचा लेकर आए। तीसरे, बुनियादी संरचना और उद्योगों का पूंजीवादी विकास उन्होंने सहज बनाया। पहले कदम से जहां लोगों की चेतना में जाति की पहचान और ठोस हुई, जिसका निचली जातियों पर प्रतिकूल असर पड़ा, वहीं दूसरे और तीसरे कदम ने उन्हें दमन और बंधन से मुक्त होने और उसके खिलाफ खड़े होने में सीधी मदद पहुंचाई। औपनिवेशिक सत्ता ने दो बदलाव किए, हालांकि यह उनकी मंशा नहीं थी: एक, इसने निचली जातियों में जाति विरोधी आंदोलनों के लिए उत्प्रेरक का काम किया और दूसरे, पूंजीवाद के आविर्भाव के चलते इसने द्विजों के भीतर कर्मकांडी जातियों का पतन किया और जाति संरचना को तीन श्रेणियों में सामान्यीकृत कर के आसान बना दिया: द्विज, शूद्र और अस्पृश्य।
निचली जातियों में जाति विरोधी पहला विद्रोह महाराष्ट्र में जोतिबा फुले ने किया। उन्होंने शेटजी और भाटजी (सूदखोरों और पुरोहितों) द्वारा कामगार तबके (शूद्र और अतिशूद्र) के शोषण को उद्घाटित किया और इसकी जड़ ब्राह्मणों द्वारा निचली जातियों को शिक्षा वर्जित किए जाने में तलाशी। उन्होंने गुलाम बनाने वाले निचली जातियों के कर्मकांडों के खिलाफ विद्रोह किया और उन्हें जाति उत्पीडऩ के खिलाफ खड़े होने को प्रेरित किया। गोपालबाबा वालंकर, जिन्हें आंबेडकर ने दलित आंदोलन का प्रणेता बताया था, और पुणे के शिवराम जनबा कांबले, दोनों फुले के शिष्य रहे। आंबेडकर ने अपना आंदोलन खड़ा करते हुए अपने एक गुरु के रूप मेंफुले के प्रति सम्मान के साथ आभार जताया।
आंबेडकर का उदय और बहिष्कृत हितकारिणी सभा
बाबासाहब आंबेडकर ने जाति की राजनीति किसी जाति विशेष की बेहतरी के लिए नहीं की। अपने पहले संगठन बहिष्कृत हितकारिणी सभा के उद्भव के समय से ही उन्होंने दूसरी जातियों और समुदायों के तरक्कीपसंद लोगों को इस तरह से इसमें जोड़ा था कि यह सभा पूरी तरह उच्च जातियों/तबकों के लोगों की हो गई थी जिसकी सिर्फ प्रबंधन समितियों में ही दलित थे। आंबेडकर इसके अध्यक्ष थे, एसएन शिवतारकर सचिव थे और एनटी जाधव इसके कोषाध्यक्ष थे। अस्पृश्यों के मुद्दे को उठाते हुए वे हमेशा उन्हें ‘वंचित वर्ग’ कहा करते थे। जाहिर तौर पर वर्ग की उनकी अवधारणा मार्क्स के बजाय वेबर के ज्यादा करीब ठहरती थी। यह उनके ऊपर फेबियन राजनीति के प्रभाव का असर था चूंकि वह कोलंबिया विश्वविद्यालय और बाद में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़े थे, जिसकी संस्थापना फेबियनों ने की थी।
वर्ण व्यवस्था की चौहद्दी से बाहर खड़ी सारी जातियों का समूह जो कि अस्पृश्य कहलाता था, अपने आप में जाति नहीं था बल्कि सामाजिक रूप से अलग कर दिए गए लोगों का एक वर्ग था जो सामाजिक और उत्पादन संबंधों में एक विशिष्ट स्पेस में स्थित थे। आंबेडकर के अनुयायी, जो जाहिर तौर पर उनकी ही जाति से आते थे, उनके विचारों की बारीकियों को नहीं पकड़ सके और उन्हें अपना ‘मसीहा’ मान बैठे। इस तरह उन्होंने आंबेडकर को अपनी जाति के एक प्रतीक के रूप में सीमित कर दिया। वैसे भी, इसे पहचान सकना इतना आसान नहीं था क्योंकि आंबेडकर के शुरुआती कदमों को अस्पृश्यों के आरंभिक आंदोलनों से अलगा पाना संभव नहीं था जो बुनियादी तौर पर अपनी-अपनी जातियों के उत्थान की ओर लक्षित थे। चाहे यह आंबेडकर का महारों द्वारा की गई भारी प्रगति की याद दिलाना और उनके पतन पर दुख जताना हो या फिर दलित महिलाओं के प्रति उनकी सीख कि वे खुद को एक निश्चित तरीके से प्रस्तुत करें, या फिर 1818 में कोरेगांव के युद्ध में महार सैनिकों के बलिदान और साहस की सराहना, यह वालंकर, कांबले और बांसोड़े के आरंभिक कामों से अलग नहीं था। चूंकि उनके अनुयायी अधिकतर उन्हीं की जाति से आते थे, तो उनका कहा एक जातिगौरव के साथ लिया जाता था। वास्तव में, जातिग्रस्त माहौल में जाति के मुहावरे के पार जाना बहुत पहले भी मुश्किल था और अब भी है।
आरंभ में बाबासाहब आंबेडकर के पास जाति उन्मूलन की दृष्टि नहीं थी। कोलंबिया विश्वविद्यालय के नृविज्ञान संबंधी सेमिनार में प्रस्तुत अपने पहले निबंध ‘कास्ट्स इन इंडिया: देयर मेकैनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट’ में, जो कि बौद्धिक दायरे में जाति की समझदारी की दिशा में एक लंबी छलांग था, वे जातियों को घेरे में बंद वर्गों के रूप में परिभाषित करते हैं: ”वर्ग के इस घेरे को पैदा करने वाली व्यवस्था गोत्र (एंडोगेमी और एग्जोगेमी) की है।’’ उन्होंने समस्या का कोई समाधान तो नहीं दिया, लेकिन इससे तर्क यह निकलता था कि यदि इस घेरे को तोडऩा है तो गोत्र को खत्म करना होगा। इसी समझ ने उनके भीतर यह सुधारवादी आशा जगाई कि यदि हिंदुओं को जाति प्रथा के भीतर की गड़बडिय़ों के प्रति संवेदनशील बनाया जाता है तो वे शायद ऐसे सुधार करें जिनसे गोत्र से बना वर्गीय घेरा टूट सके। इस रणनीति में अस्पृश्यों समेत हिंदुओं को भी जाति की बुराइयों के खिलाफ जागरूक करना शामिल था। इसमें अस्पृश्यों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को भी संबोधित किया जाना शामिल था। मूकनायक (उन्होंने पहला पत्र 1920 में शुरू किया) जहां जागरूकता के इन्हीं पहलुओं को समर्पित था, वहीं बहिष्कृत हितकारिणी सभा के लक्ष्य और उद्देश्य शिक्षा दिलाने, संस्कृति का प्रसार करने, आर्थिक हालात में सुधार लाने तथा ‘वंचित वर्गों’ की शिकायतों को प्रतिनिधित्व देने से जुड़े थे। यह विशुद्ध सुधारवादी एजेंडा था और इसमें टकराव का कोई तत्व मौजूद नहीं था, जाति उन्मूलन के किसी क्रांतिकारी पहलू पर बात तो दूर रही। यह तो महाड़ में हुआ कि वह हिंदुओं से सीधे टकराव में आए। महाड़ के अपने कड़वे अनुभवों और व्यापक हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले गांधी के साथ अपने तजुर्बों ने उन्हें जाति का उन्मूलन लिखने को बाध्य किया जिसमें वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जातियों का सुधार संभव नहीं है और इसे जड़ से ही उखाडऩा होगा। यह निष्कर्ष इस समझ पर आधारित था कि जातियां हिंदू धर्म का अभिन्न अंग हैं जिन्हें इसके धर्मशास्त्रों से मान्यता मिली हुई है। कार्यक्रम के संदर्भ में इसका अर्थ यह हुआ कि जाति उन्मूलन के लिए हिंदू धर्म की नींव को ही खोदना पड़ेगा, उन हिंदू धर्मशास्त्रों को नष्ट करना पड़ेगा जो जाति की विचारधारा को अभिपुष्ट करते हैं। चूंकि उन्होंने देखा कि यह कार्य असंभव है, इसलिए इस कार्यक्रम की परिणति घट कर हिंदू धर्म का निषेध हो गई, यह उन्होंने खुद अपने लिए चुना। इसका मतलब यह कहने जैसा था कि सामान्यत: जातियों का उन्मूलन संभव नहीं है क्योंकि जिन सवर्ण हिंदुओं के जातियों में निहितस्वार्थ हैं और वे कभी भी अपने धर्मशास्त्रों को नष्ट करने को तैयार नहीं होंगे। इसलिए जाति के शिकार लोगों के लिए इकलौता विकल्प यही है कि वे हिंदू धर्म को छोड़ कर उससे बाहर निकल आएं।
हिंदू धर्म और जाति का संबंध
इसका निहितार्थ यह बनता था कि चूंकि जाति उन्मूलन का लक्ष्य संभव नहीं दिखता है, इसलिए जाति व्यवस्था के शिकार लोग हिंदू धर्म को सवर्ण हिंदुओं के लिए ही छोड़ कर इस शोषणकारी ढांचे से बाहर आ जाएं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या हिंदू धर्म का बहिष्कार करके वे जाति उत्पीडऩ से मुक्त हो सकते हैं। इस सवाल का सामान्यत: जवाब नहीं में है। अगर वे सब हिंदू धर्म छोड़ देंगे तो हिंदू धर्म ही ढह जाएगा और वर्ण व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी। यद्यपि इसका अर्थ हिंदुओं से शारीरिक रूप से दूर हो जाने से है पर क्या मात्र हिंदू धर्म त्याग देने से यह हो जाएगा। हो सकता है कि इसका अर्थ मानसिक गुलामी से बाहर निकल आना हो, लेकिन गुजर बसर के लिए पुराने कार्यस्थलों पर शारीरिक रूप से अब भी उनके उत्पीडऩ की गुंजाइश बनी रहेगी। इस बाद की स्थिति के लिए कोई अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम इतिहास में देखें, तो हिंदू धर्म से निचली जातियों को बाहर निकालने के वर्णन मौजूद हैं (उपमहाद्वीप में गैर-हिंदुओं की आबादी इसका साफ सबूत है) लेकिन वे अपनी नियति से बाहर नहीं निकल सके। जातियां सिर्फ बची ही नहीं रह गईं, बल्कि उसने अपने जहर से इन नए धार्मिक समुदायों को भी जहरीला बना डाला। सुदूर जगहों पर दलितों के पलायन ने भी उन्हें जाति के कलंक से मुक्त नहीं किया है, जैसा हिंदू आबादी के बीच रहने वाले योरोप और अमेरिका के प्रवासी दलित इसकी गवाही दे सकते हैं। शायद सवर्ण हिंदू जातियां ‘दलितों’ के बगैर जी ही नहीं सकती हैं। अफ्रीका जैसे देशों में जहां दलित उपलब्ध नहीं थे, उन्होंने स्थानीय अश्वेत आबादी को ‘दलित’ बनाकर अपना काम चला लिया।
इसका मतलब सिर्फ यही हो सकता है कि जाति को गोत्रों की परंपरा के संदर्भ में या किसी धार्मिक मान्यता के संदर्भ में नहीं समझा जा सकता है। इन सबको अपने में समेटते हुए जातियों ने जीने के एक खास तरीके में पैठ बना ली है। यह लोगों के जीवन-जगत का हिस्सा है जिन्हें अलग से नहीं पहचाना या सीमित नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि अमीर दलित भी खुद को जाति के कलंक से मुक्त नहीं कर सके हैं (आंबेडकरवादी आंदोलन से काफी पहले भी देश में अमीर दलितों के उदाहरण मौजूद रहे हैं)। जो तर्क दिया जाता है कि आर्थिक समृद्धि का जाति से कोई लेना-देना नहीं है, यह बहुत अटपटा है। ऐसा है भी और नहीं भी है: किसी और अन्य कारक से कहीं ज्यादा आर्थिक समृद्धि का जाति से संबंध है, लेकिन यह बात पूरी तरह सही नहीं है। जहां कहीं भी हिंदुओं से निर्भरता के संबंध में दलित बंधे हुए नहीं हैं, वहां जाहिर तौर पर वे जाति उत्पीडऩ के प्रति उतने अरक्षित नहीं हैं जितना उन जगहों पर जहां दोनों के बीच निर्भरता का रिश्ता है। इसके अलावा, इस जीवन-जगत में जो भी बदलाव हुए हैं, उनकी जड़ें इतिहास के राजनीतिक-आर्थिकी से जुड़े कारकों में खोजी जा सकती हैं। इसलिए यह बात कहना ठीक होगा कि भौतिक (पढ़ें आर्थिक) कारक जाति के मसलों में किसी अन्य कारक से ज्यादा प्रभावकारी हैं, लेकिन यही सब कुछ नहीं है, जैसा कि भौंडे भौतिकवादियों का दावा रहता है। इसे इस तरह कह सकते हैं कि यदि आप भौतिक कारकों की उपेक्षा करते हुए गैर-भौतिक कारकों पर काम करते हैं तो आपकी नाकामी तय है, लेकिन यदि आप सिर्फ भौतिक कारकों पर काम करते हैं और गैर-भौतिक कारकों को छोड़ देते हैं, तो हो सकता है कि आप कामयाब न हो पाएं।
बाबासाहब आंबेडकर कार्यक्रम के स्तर पर यह नहीं बता सके कि जाति का उन्मूलन कैसे होगा। इससे निहित स्वार्थों को बल मिलता है कि उन्होंने जाति उन्मूलन के लिए नहीं कहा। उनकी बातों की गहराई का मोल कार्यक्रम या रणनीति के स्तर पर उतना नहीं है जितना उनकी दृष्टि में है। कार्यक्रम के स्तर पर वह हिंदू धर्मशास्त्रों में जाति को अवस्थित करके और जाति के उन्मूलन की असंभाव्यता को मानने की वजह से भटक गए, लेकिन यह कहना मूर्खतापूर्ण होगा कि उन्होंने जाति के उन्मूलन की बात नहीं की। कई साल बाद जब भारत का संविधान लिखते वक्त उनके पास एक आंशिक मौका आया, तब भी वह जो चाहते थे नहीं कर पाए। उनका तीखा विरोध तो हो ही रहा था, इसके अलावा उनके भीतर एक द्वंद्व भी था, कि जातियों को नकार कर अस्पृश्यों के लिए विशेष सुरक्षा का एक आधार तैयार किया जाए या नहीं। वास्तव में यह सुरक्षा कवच औपनिवेशिक समय से ही चला आ रहा था और इसके लाभार्थी पहले से ही जड़ हो चुके थे। उन्हें प्रशासनिक काम मान कर जातियों को अब भी कानूनी तौर पर खत्म किया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं होगा बल्कि सत्ताधारी तबकों के लिए एक मुहावरेबाजी के चलते उन्हें बचाए रखा जाएगा ताकि यह बहाना दिया जा सके कि वे अन्य पिछड़ी जातियों के साथ सामाजिक न्याय के हामी हैं और इन जातियों की पहचान जब और तब उनकी मर्जी पर ही होगी। भारत के राजनीतिक षड्यंत्रों के इतिहास में यह सत्ताधारी तबकों की सबसे बड़ी चाल साबित हुई है और जहां तक दलितों का सवाल है, यह एक ऐसा चाबुक है जिसकी मार पर न तो दलित बुद्धिजीवियों का ध्यान गया है और न ही उनके नेताओं का।
अस्पृश्यता बनाम जाति उन्मूलन
अस्पृश्यता को गैर-कानूनी करार दिए जाने के बाद काफी तरक्की हुई है। खासकर लखनऊ पैक्ट के बाद नामी-गिरामी सवर्ण हिंदुओं की ओर से अस्पृश्यों के बीच जागरूकता पर यही प्रतिक्रिया आई थी। यह दरअसल भौतिक रूप से कुछ भी छेड़े बगैर अस्पृश्यों की भावनाओं को तुष्ट करने की एक साजिश थी। चूंकि अस्पृश्यता का स्रोत जातियां हैं, इसलिए जाति को खत्म किए बगैर अस्पृश्यता उन्मूलन का कोई मतलब नहीं रह जाता। वास्तव में यही हुआ है। आज अस्पृश्यता उन्मूलन के करीब 70 साल बाद भी हाल के सर्वेक्षणों में पता लगा है कि 60-70 फीसद से ज्यादा गांवों में अलग-अलग स्तरों पर अस्पृश्यता को बरता जाता है। अस्पृश्यता का संवैधानिक उन्मूलन बेकार साबित हुआ है।
ऐतिहासिक रूप से भेदभाव का शिकार रही जातियों का संघर्ष मान्यता के संघर्ष में बदल जाता है और फिर अनिवार्य रूप से यह पहचान की राजनीति में तब्दील हो जाता है। मुख्यधारा हमेशा पहचान की राजनीति को हवा देती है क्योंकि यह शोषण के असल ढांचों को चुनौती नहीं देती है। इतना ही नहीं, यह उदारवाद के विषाणु को बचाकर रखती है ताकि जनता से इंकलाबी विचारों को दूर रखा जा सके। पहचानों के संग्रहालय भारत में आज यही प्रवृत्ति राज कर रही है। न तो फुले और न ही आंबेडकर ने जातिगत पहचान की बात की थी, लेकिन वर्गीय अंतर्विरोध की अवधारणा निर्मिति की प्रक्रिया में वे लोगों की जातिगत पहचान से नहीं बच सके। फुले का आशय परजीवी वर्गों के खिलाफ कामगार तबकों के संघर्ष से था लेकिन वे जाति के वर्चस्वशाली मुहावरे (शूद्र-अतिशूद्र)से बच नहीं सके हालांकि शेटिज और भाटिज नाम के शत्रुद्वय के लिए उनकी अभिव्यक्ति ज्यादा वर्गीय स्वरूप की ही थी। यही बात आंबेडकर के लिए भी कही जा सकती है। उन्होंने शत्रु को व्यक्तियों नहीं बल्कि विचार के तौर पर यानी पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के रूप में गढ़ते हुए फुले के विचार को समृद्ध किया लेकिन ऐसा करते वक्त वे भी अस्पृश्य जैसी जातिगत पहचान से बच नहीं पाए, हालांकि उन्होंने यथासंभव वंचित वर्ग के वैकल्पिक पद का इस्तेमाल किया जो वर्ग की ओर इशारा करता था। इन्होंने जो सूक्ष्म भेद बताया उसे इनकी व्याख्या करने वालों ने भुला दिया। वंचित वर्ग का व्यापक मतलब अस्पृश्य समझ लिया गया और सबसे बुरा तब हुआ जब अस्पृश्यों ने इसे अपनी जाति समझ लिया। इसी तरह ब्राह्मणवाद का मतलब ब्राह्मणों से लगा लिया गया बावजूद इसके कि आंबेडकर ने साफ तौर पर जोर दिया था कि ब्राह्मणवाद की प्रवृत्ति दलितों में भी हो सकती है। इस भाषागत मजबूरी से इतर आंबेडकर-फुले के चलाए मुक्ति के संघर्ष को अनिवार्यत:,गलत रूप से पहचानी गई अस्मिताओं को स्वीकार्यता दिलाने के संघर्ष से गुजरना पड़ा, जिसे उनकी जाति ही होना था। मसलन, गोलमेज सम्मेलन में अस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचन मंडल के लिए संघर्ष और इनके आरक्षण के लिए उनके प्रयास दरअसल इनकी मुक्ति के व्यापक संघर्ष का अपरिहार्य और अनिवार्य हिस्सा थे।
जाति के मुहावरों के सहज प्रयोग ने काफी नुकसान किया है। फुले की मौत के तुरंत बाद शूद्रों ने अतिशूद्र से खुद को अलग कर लिया (कहते हैं कि पुणे में जहां फुले की शोकसभा चल रही थी उसमें अस्पृश्यों को प्रवेश नहीं करने दिया गया था), वहीं आंबेडकर की अपनी जाति को छोड़कर अन्य अस्पृश्य जातियां उनसे दूर ही रहीं (आंबेडकर के ज्यादातर अनुयायी उनकी महार जाति और अन्य क्षेत्रों में महार जैसी जातियों से ही रहे)। चुनावी प्रक्रिया में इस स्वाभाविक पहचान के ध्रुवीकरण का इस्तेमाल सत्ताधारी वर्गों ने किया। आंबेडकर ने 1937 के चुनाव के पहले ही समझ लिया था कि उन्हें अपनी राजनीति को वर्ग आधारित बनाते हुए व्यापक रूप देने की जरूरत है और उन्होंने इंग्लैंड का आइएलपी मॉडल अपनाया, जबकि कांग्रेस की पूरी कोशिश रही कि अन्य अस्पृश्य जातियों को आंबेडकर से दूर रखा जाए। यह इतिहास का प्रतीकात्मक सबक कहा जा सकता है कि वर्ग आधारित राजनीति कर रहे आंबेडकर को ज्यादा सीटें मिलीं (बॉम्बे प्रेसिडेंसी के 1937 में हुए चुनाव में कुल 17 में से 14 सीटें इंडियन लेबर पार्टी- आइएलपी – को मिलीं जिनमें 31 में से 11 आरक्षित थीं और 4 सामान्य में से 3 थीं) जबकि जाति की राजनीति कर रहे आंबेडकर को बार-बार हारना पड़ा (1952 और 1954 में बिना किसी राजनीतिक हैसियत वाले प्रतिद्वंद्वियों से आंबेडकर को हारना पड़ा)। क्रिप्स मिशन की रिपोर्ट की राजनीतिक अपरिहार्यताओं के चलते उन्हें आइएलपी को भंग करना पड़ा और उन्होंने एक संप्रदाय पर आधारित दिखने वाली पार्टी शिड्यूल कास्ट फेडरेशन (एससीएफ) गठित की। इसके साथ ही उन्हें वाइसरॉय के कार्यपरिषद में लेबर मेम्बर के रूप में लिया और उन्होंने श्रमिकों के लिए बहुत योगदान दिया।
भले एससीएफ का गठन अनुसूचित जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए किया गया था, इसने अपने पूर्ववर्ती वर्गीय झुकाव के कारण ऐसा नहीं किया। इसने जो सबसे यादगार दस्तावेज तैयार किया वह था स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज, जिसे आंबेडकर ने लिखा। यह संविधान सभा के लिए एक मेमोरेंडम जैसा था जिसमें भारत के संविधान द्वारा राजकीय समाजवाद अपनाने की बात कही गई थी। इसके बाद से आंबेडकर को राजनीतिज्ञ (स्टेट्समैन) की भूमिका में देखा जाने लगा जिनके कंधों पर संविधान तैयार करने की महती जिम्मेदारी थी और जिन्होंने कानून मंत्री रहते हुए हिंदू कोड बिल में महिलाओं के अधिकारों के पक्ष में कड़ा रुख लिया। बाद में उन्होंने एक नैतिक संहिता के तौर पर बौद्ध धर्म को अपना लिया जो ”मुक्ति, समता और बंधुत्व’’ का संदेश देता था और ब्राह्मणवाद की एक सशक्त काट है। उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के गठन की कल्पना की, जिसके तहत सारे गैर-कांग्रेसी और गैर-वामपंथी तत्वों को एक छत के नीचे लाकर इसे संसदीय लोकतंत्र में प्रमुख विपक्षी पार्टी बनाना था। उनकी समूची जिंदगी में हमें जाति के प्रति नफरत और मनुष्य की मुक्ति की विचारधारा की तलाश दिखती है। एक कट्टर उदारपंथी होने के नाते उन्हें मार्क्सवाद के क्रांति के कार्यक्रम पर आपत्तियां थीं हालांकि उसमें निहित मानवता की मुक्ति के लक्ष्य को उन्होंने स्वीकार किया था।
नेहरू काल के बदलाव
आंबेडकर के विचारों की बारीकियों को उनके अनुयायियों ने भुला दिया, जिन्होंने उनकी मौत के तुरंत बाद उन्हें जातीय-पहचान के एक ऐसे प्रतीक के तौर पर प्रतिष्ठित कर डाला जिसमें मुक्ति का उनका सार्वभौमिक नजरिया ही गायब कर दिया गया। कुछ उन्हें बोधिसत्व कहने लगे, तो कुछ ने उन्हें मार्क्सवाद विरोधी ठहरा दिया, कुछ ने उन्हें संसदीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा नायक ठहराया तो कुछ और लोग उन्हें ऐसा विचारधाराहीन अवसरवादी करार देने लगे जिसने अपने समुदाय के हितों का सिर्फ इसलिए खयाल रखा ताकि उसे सत्ता तक पहुंचाया जा सके। आंबेडकर की इच्छा का सम्मान करते हुए उनके अनुयायियों ने 3 अक्टूबर 1957 को नागपुर में एससीएफ के एक सम्मेलन में आरपीआई का गठन तो कर दिया, लेकिन पार्टी में गैर-दलितों को शामिल करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। यह बस एससीएफ पर एक नया नाम चस्पां कर देने जैसा था जबकि अंतर्वस्तु में पार्टी कुछ विशेष जातियों का मजमा ही बनी रही। आंबेडकर ने आरपीआई के बारे में अपनी योजना जाहिर करते हुए कहा था कि यह एक विचारधारा निरपेक्ष पार्टी होगी जो ”तर्कपूर्ण और आधुनिक दृष्टि के साथ भारतीय जनता की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक प्रगति के लिए’’ काम करेगी। इसी दिशा में 30 सितंबर 1956 को एससीएफ भंग कर के आरपीआई बनाने का एक फैसला लिया गया। किसी ”विचारधारात्मक’’ आलंबन के अभाव में खुद आंबेडकर को आरपीआई का प्रतीकमान लिया गया और पार्टी के नेताओं की जितनी समझ रही उतना उन्होंने इसे संकीर्ण बना डाला। आंबेडकर के विराट नेतृत्व में पार्टी नेताओं के बीच की दुश्मनी सतह के नीचे रही लेकिन उनके निधन के तुरंत बाद यह उभर कर सामने आ गई।
पहले ही दिन से आरपीआई एक टूटा हुआ कुनबा था। विभिन्न नेताओं ने अलग-अलग दिशाओं में खींचतान शुरू कर दी। इस दौरान देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कई विशाल बदलाव हुए। इसी दशक में नेहरू की सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं का आरंभ करते हुए अपने समाजवादी रुझान का परिचय दिया, आंशिक भूमि सुधारों को अंजाम दिया, हरित क्रांति के नाम से पूंजीवादी कृषि प्रौद्योगिकी का प्रवेश कराया, और यह सब इसलिए ताकि अर्थव्यवस्था पर राज्य का नियंत्रण स्थापित हो सके तथा ज्यादा आबादी वाले शूद्रों के बीच से धनी किसानों का एक वर्ग पैदा कर के विशाल ग्रामीण क्षेत्र में राज्य का राजनीतिक नियंत्रण कायम किया जा सके। इसके परिणामस्वरूप पूंजीवादी संबंधों की जो बाढ़ आई, उसमें दलित आबादी ग्रामीण सर्वहारा में तब्दील होकर रह गई और पारंपरिक जजमानी व्यवस्था में मिली सुरक्षा से महरूम हो गई। नए उत्पादन संबंध जल्द ही वेतन-भत्तों पर होने वाले संघर्षों में तब्दील होने लगे जिसने एक नए किस्म के जातिगत उत्पीडऩ को जन्म दिया, जिसका पहला उदाहरण हमें दिसंबर 1968 में तमिलनाडु के किल्वेणमणि में देखने को मिलता है। दूसरी ओर ग्रामीण धनी वर्ग की बढ़ती आकांक्षाओं के साथ पारंपरिक द्विजों और शूद्रों के बीच राजनीतिक समीकरण बदलने शुरू हो गए; शूद्रों ने उच्च जाति के हिंदुओं से सत्ता की लगाम अपने हाथों में लेनी शुरू कर दी। जैसा कि औपनिवेशिक दौर में हुआ था, पूंजीवादी बन चुके धनी किसानों के वर्ग ने अपने जाति संबंधों का इस्तेमाल करते हुए इस शूद्र उभार पर अंकुश लगाया और दलितों व गैर-दलितों के बीच एक वर्गनुमा विभाजन करते हुए जातियों का और ज्यादा सरलीकरण कर दिया।
उस वक्त कांग्रेस का जनाधार दलितों, आदिवासियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों से मिलकर बना था। इस संरचना में सबसे ज्यादा आबादी वाले दलितों के आंबेडकरवादी बन जाने के अलगाववादी रुझान को कांग्रेस ने अपने लिए खतरा माना और उसने उन्हें अपने पाले में करने के लिए एक रणनीति बनाई, जिसका पहला प्रयोग आंबेडकरवादी आंदोलन के गढ़ से निकले धनी किसानों के नए वर्ग के प्रतिनिधि और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने किया। उन्होंने आरपीआई के अध्यक्ष दादासाहब गायकवाड़ को कांग्रेस के साथ चुनावी गठजोड़ करने के लिए राजी कर लिया। इस गठजोड़ ने दूसरों के लिए सत्ताधारी तबके के करीब आने का रास्ता खोल दिया जिसके चलते आरपीआई कई हिस्सों में बंट गई। पिछले दो दशकों में पूंजीवाद के स्वर्णिम काल का अब अंत हो चुका था और यह व्यवस्था वैश्विक स्तर पर एक संकट से गुजर रही थी। इस पृष्ठभूमि में दलित पैंथर्स का आरपीआई के राजनीतिक पतन की प्रतिक्रिया के रूप में उभार हुआ, जिसने सत्ताधारी तबके के लिए खतरे की घंटी बजा दी लेकिन जल्द ही यह भी आरपीआई की ही तरह सत्ताधारियों की तिकड़मों का शिकार हो गया। आरपीआई की विफलता की प्रतिक्रिया में एक और उभार बामसेफ का हुआ जिसने आरक्षण के लाभार्थी एससी और एसटी की भारी आबादी का लाभ उठाते हुए 15 फीसद द्विज जातियों के कर्मचारियों के खिलाफ एससी, एसटी, बीसी और अल्पसंख्यक समुदायों से शिक्षित कर्मचारियों का एक व्यापक गठजोड़ बनाया। सरकारी कर्मचारियों के इसी तबके से आने वाले कांशीराम ने खुद यह पहल की और इसे डीएस4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) नाम के एक आक्रामक संगठन में 1981 में तब्दील कर दिया और बाद में 1984 में बहुजन समाज पार्टी नाम की राजनीतिक पार्टी के रूप में परिवर्तित कर दिया।
कांशीराम अपनी इस राजनीतिक रणनीति में कामयाब रहे और उत्तर प्रदेश में उन्होंने राजनीतिक सत्ता पर कब्जा कर लिया, जहां पहले से ही मौजूद दलित राजनीति के विशिष्ट इतिहास और दलितों की आबादी ने उन्हें एक उर्वर जमीन मुहैया कराई थी। दलितों को केंद्र में रखते हुए राजनीतिक सत्ता के आवरण में बसपा ने बड़ी आसानी से अपने पैर पसारे और समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में अपने लिए जगह बना ली। बसपा ने खुले रूप में पहचान की राजनीति की और अपरिहार्य रूप से शासक वर्ग की पार्टी में तब्दील हो गई। इसने दलितों के मध्यवर्ग में यह आत्मविश्वास पैदा किया कि उनके बीच की एक महिला कद्दावर राजनेताओं के बीच चमक रही है लेकिन दलित आबादी को इसने किसी भी रूप में कोई मदद नहीं की, सिवाय इसके कि सत्ता के साथ होने का एक काल्पनिक सुख उनके पास बना रहा। वस्तुगत रूप से देखें तो अपने परिदृश्य में वे दूसरे वर्गों के बरक्स खुद को और ज्यादा कमजोर स्थिति में पाने लगे जिसके चलते एक काल्पनिक राजनीतिक सुरक्षा कवच के लिए ही सही उन्हें खुद को बसपा के साथ संबद्ध किए रहने की एक बाध्यता बन गई। इसी आबादी की ताकत से बसपा ने सिर्फ सत्ता पाने के लिए काम किया और इस क्रम में जातियों के उन्मूलन के आंबेडकरवादी एजेंडे का ही उन्मूलन कर डाला तथा विशाल स्मारकों के नाम पर आंबेडकर के अनुयायियों को बस मूर्ख बनाती रही।
आरक्षण की राजनीति
गांवों में कांग्रेस का पैदा किया धनी किसानों का वर्ग उसी के लिए खतरा बन गया। इसकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ गईं कि इसने पार्टी ढांचे में अहम जगहें कब्जानी शुरू कर दीं और अपनी क्षेत्रीय पार्टियां इस वर्ग ने खड़ी कर लीं। इन क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के एकाधिकार में सेंध लगा दी और गठबंधन राजनीति के दौर का आरंभ किया, जहां मौजूदा चुनावी प्रणाली में मुट्ठी भर वोट भी अच्छी कीमत देने वाले साबित होने लगे। इस तरह चुनावी राजनीति लगातार प्रतिस्पर्धी होती गई और इसमें जातियों और अन्य पहचानों की अहमियत बढ़ती ही गई। पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिलवाने का पुराना औजार जो कि 1953 में केलकर आयोग और 1980 में बने मंडल आयोग के बाद से जंग खा रहा था, उसे वीपी सिंह ने 1989 में मंडल की सिफारिशों के साथ चमका दिया। इस तरह समाज में जाति के कीड़ों को खुलेआम छोड़ दिया गया। आरक्षण राजनीतिक दलों के हाथों में औजार की तरह हो गया जिसका उन्होंने अपने राजनीतिक समीकरण के पक्ष में पूरी बेशर्मी के साथ इस्तेमाल किया। विरोधाभास देखिए कि यह सब नवउदारवादी भूमंडलीकरण के दौर में हो रहा था जो जल्द ही सरकारी क्षेत्र में आरक्षण की जमीन को खाकर इस सब को निरर्थक साबित करने वाला था। 1997 से 2007 के दशक में सरकारी नौकरियों का आधार वास्तव में घिस गया और 187 लाख सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम होकर 180 लाख पर आ गई जो कि 1997 में ही आरक्षण के अंत का संकेत दे रही थी। लेकिन राजनीतिक पार्टियां इस कड़वी हकीकत से आंखें फेरे प्रत्येक संभव जाति और समुदाय के लिए आरक्षण की मांग उठाते हुए लगातार लोगों को मूर्ख बनाती रहीं, जिनमें एक मायावती के ब्राह्मण भी रहे।
सोवियत संघ के पतन और परिणामस्वरूप वर्ग की राजनीति से मोहभंग के बाद दुनिया भर में पहचान की राजनीति का दोबारा उभार हुआ है। नवउदारवादी भूमंडलीकरण द्वारा पैदा की गई असुरक्षा और अस्थिरता के चलते ही लोग अपनी-अपनी पहचानों में पनाह लेने को बाध्य हुए हैं। अकादमिक विद्वानों ने सत्ता की राह पर चलते हुए पहचान की राजनीति को अपने उत्तर-आधुनिक विमर्शों से और हवा दी है। वास्तव में, अब तो उनके बीच पहचान की राजनीति को लोकतंत्रीकरण के एक महान कारक के रूप में पेश करने का चलन बन चुका है। मसलन, यह कहा जा रहा है कि जाति, भाषा और धर्म जैसी विभिन्न पहचानों पर आधारित मान्यता दिलाने की राजनीति स्वातंत्र्योत्तर भारत में लोकतांत्रिक संघर्षों का एक निर्णायक कारक रही है। हमारे यहां ऐसी तमाम पहचानें रही हैं और उनका कुल परिणाम जनता पर सत्ताधारी तबके के बढ़ते शिंकजे के ही रूप में देखा जा सकता है। पहचान की राजनीति जनता को मुक्ति नहीं दिला सकती क्योंकि यह अनिवार्यत: मुक्ति की धुरी के पार जाकर खुद में विभाजनकारी बनी रहती है। यह जाति, नस्ल, जातीयता, लैंगिकता, यौनिकता इत्यादि पहचानों के खिलाफ चल रहे अस्तित्व के संघर्षों की अहमियत को कम करके आंकना नहीं है, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि ये संघर्ष उस वर्ग-संघर्ष के ऊपर हावी हो जाएं जो कि सार्वभौमिक है और इसीलिए वास्तव में मुक्तिकारी है।
ये तो हुई पहचानों के बारे में सामान्य बात, लेकिन जाति, जो कि ऐसी पहचानों के साथ हल्के-फुल्के जुड़ी रहती है, उसकी कुछ विशिष्टताएं भी हैं जो कि जाति आधारित राजनीति को और ज्यादा अमान्य ठहराती है। जाति अंतर्निहित तौर पर अनुक्रम की दरकार रखती है, जैसे कि एक अमीबा होता है जो अनंत बार विभाजित होता है, और इसीलिए जातियां किसी बदलावकारी संघर्ष का आधार नहीं बन सकतीं। जाति किसी दबाव के तहत एकजुटता का भ्रम पैदा करती है, लेकिन जैसे ही दबाव दूर होता है वह एकजुटता टूट जाती है। आंबेडकरवादी आंदोलन के चरम दौर में महार जाति की सभी उपजातियां एकजुट बनी रहीं और सब खुद को ‘दलित’ के नाम से पहचानती थीं, लेकिन जैसे ही आंदोलन की गर्मी छंटी, उपजातियां अपनी-अपनी पहचान को लेकर उभर आईं और उन्होंने आंदोलन को कमजोर कर दिया। यह कहा जाता है कि इन्हीं में से एक उपजाति ने आंबेडकरवादी आंदोलन के गढ़ नागपुर में अपने नाम का एक बोर्ड लगा रखा था। जाति की पहचान प्रच्छन्न हितों को पूरा कर सकती है, और वास्तव में वह ऐसा करती भी है, लेकिन यह कभी भी किसी क्रांतिकारी परिवर्तन के संघर्ष में मददगार नहीं हो सकती। इस संदर्भ में सिर्फ एक ही दृष्टि सटीक बैठती है और वह है जाति के उन्मूलन का आंबेडकर का दिया गया नारा।
आज पहचान की राजनीति ने मुक्ति के एजेंडे को हाशिये पर धकेल दिया है। हर कहीं अपने-अपने नायकों व प्रतीकों के साथ जातियों का दोबारा उभार हुआ है और उन्होंने अभूतपूर्व तरीके से अपनी पहचान के सार्वजनिक प्रदर्शन किए हैं। एक जाति को केन्द्र में रखकर कामयाब हुई बसपा और सपा ने इस परिघटना को ताकत दी है। विरोधाभास यह है कि आंबेडकर के साथ खुद को जोड़ कर बताने वाले दलित ही अपनी पहचान का प्रदर्शन करने की कतार में सबसे आगे हैं और यह पहचान दलित के तौर पर नहीं है, बल्कि मूलनिवासी या और बुरा कहें तो माला, माडिगा, पासी और अन्य पहचानें हैं। पूंजीवाद जैसी आधुनिक व्यवस्थाओं तक के ऊपर पहचानों को चस्पां कर दिया गया है (दलित पूंजीवाद) जिससे जाति गौरव को उकसाया जा सके और राज्य से कुछ लाभ लिए जा सकें। जाति का गौरव यथार्थ के प्रति लोगों को अंधा कर देता है। इस अंध जाति समर्थन के नीचे मुलायम सिंह या मायावती जैसे लोग कोई भी तिकड़म कर सकते हैं। इस तरह पहचान की राजनीति जनता को अचेत कर देती है और इनके नेताओं को कुछ भी करने की खुली छूट दे देती है।
इन पहचानों को हवा देने का सबसे बड़ा औजार आरक्षण रहा है। इसेआंख मूंद कर सामाजिक न्याय के औजार के तौर पर सराहा जाता रहा है जिसमें इस तथ्य की उपेक्षा की जाती रही है कि यह अनिवार्य तौर पर समानता के सिद्धांत का अतिक्रमण करके समाज में एक स्थायी असंतोष पैदा कर देता है। इसीलिए इसका उपयोग न्यायसंगत तरीके से किए जाने की दरकार होती है। औपनिवेशिक दौर में पुराने अस्पृश्यों के पक्ष में आरक्षण की व्यवस्था इस अवधारणा का एक न्यायसंगत इस्तेमाल था। इसमें कोई शक नहीं कि अस्पृश्य लोग दुनिया में एक अद्वितीय वर्ग थे जिनकी पहचान बिल्कुल स्पष्ट थी। इस बात पर कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि एक मुक्त व्यवस्था में उनके खिलाफ जमा सामाजिक पूर्वाग्रह कभी भी उन्हें उनका हक नहीं दिला पाता। इसीलिए, सामान्य लाभों का एक हिस्सा उनके लिए आरक्षित करने में राज्य की इस ताकत को एक न्यायपूर्ण उपाय के रूप में देखा गया है, लेकिन इस कसौटी को एक पिछड़े देश में पिछड़ेपन की श्रेणी तक लाकर कमजोर कर दिया जाना निश्चित तौर पर गलत और हानिकारक था।
दलितों के लिए जहां आरक्षण न्यायसंगत था, वहीं जिस आधार पर इसे स्थापित किया गया और जिस तरीके से इसे लागू किया गया, इसमें भी गलती हो सकती थी। आरक्षण सिर्फ दलितों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए नहीं था, बल्कि वह भारतीय समाज में अंतर्निहित अन्याय के खिलाफ एक औजार था। यह दलितों की कमजोरी को नहीं, बल्कि समाज की कमजोरी को दूर करने की दवा था। समूची सामाजिक संरचना को ही सिर के बल खड़ा करके उसकी तमाम बुराइयों- जैसे, लाभार्थियों को कलंकित किया जाना, उनमें हीनभावना पैदा किया जाना, उनके भीतर दड़बाकरण (घेटोआइजेशन) की प्रवृत्ति का प्रसार किया जाना, व्यापक समाज को उनके खिलाफ असंतुष्ट किया जाना और इनकी संभावित निरंतरता- से मुक्ति पाई जा सकती थी तथा हर किसी को जाति के उन्मूलन की दिशा में उत्प्रेरित किया जा सकता था। यदि व्यापक समाज को उस वक्त यह अहसास हो गया होता कि इस कड़ी दवा को पचाना इतना आसान नहीं है, तो उसने यथाशीघ्र अपना इलाज करने का प्रयास किया होता और यहां तक कि दलितों ने भी आरक्षण के ऊपर उस स्थिति को प्राथमिकता दी होती। इससे कहीं ज्यादा अहम यह है कि यदि ऐसा होता, तो उसने आरक्षण की नीति को दूसरे समुदायों तक विस्तारित किए जाने की खुराफात की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी होती और लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए राज्य एक जनपक्षीय विकास नीति को अपनाने के लिए बाध्य हो जाता।
आज तक इस विवादास्पद नीति का कभी भी कोई वस्तुगत मूल्यांकन नहीं हुआ है। यह मानकर चला जाता है कि जिनके लिए ये नीतियां बनाई गई हैं, उन समुदायों को ये लाभ पहुंचाती हैं। सैद्धांतिक तौर पर चूंकि दलित आबादी के एक हिस्से तक ही यह सीमित है इसलिए इसे उस वक्त मौजूद असमानताओं को बनाए रखने के लिए ही लागू किया गया था। पूना पैक्ट में संशोधित राजनीतिक आरक्षण प्रति उत्पादक रहे हैं, चूंकि उन्होंने न सिर्फ स्वतंत्र दलित प्रतिनिधित्व की संभावना का सफाया किया, बल्कि उनके हितों की दलाली को भी बढ़ावा दिया। आंबेडकर को इसका अंदाजा हो गया था और वे दस साल के बाद आरक्षण का अंत चाहते थे, लेकिन यह अवधि खत्म होने से पहले ही उसे विस्तारित कर दिया गया जबकि किसी ने इसकी मांग भी नहीं की थी। उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण बेशक काफी उपयोगी रहा है, चूंकि वहां इसकी जरूरत थी और इसे हटाए जाने पर वे अप्रासंगिक हो सकते हैं। आरक्षण से कहीं ज्यादा फीस में रियायत और वजीफा आदि लाभ उन छात्रों के लिए फायदेमंद रहे हैं जिनके पास शिक्षा हासिल करने के वित्तीय संसाधन नहीं थे। सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने दलितों को लाभ दिया है। इस नीति ने कुल मिलाकर एक छोटा-सा दलित मध्यवर्ग बना दिया है जो कि कुल दलित आबादी के 10 फीसदी से भी कम होगा। नीति इसी मध्यवर्ग के पक्ष में है और यह लगातार आरक्षण के बचे-खुचे लाभों पर एकाधिकार कायम करती जा रही है जिससे लाभार्थियों का दायरा संकुचित होता जा रहा है। इस संकुचित दायरे से आईआईटी, आईआईएम और अन्य संस्थानों को एससी, एसटी छात्रों की आपूर्ति लगातार कम होती जा रही है जिसके कारण कई आरक्षित सीटें नहीं भर पातीं। यह तथ्य इस परिघटना का प्रमाण है। नकारात्मक पक्ष देखें, तो आरक्षण ने दलितों के बीच वर्ग विभाजन कर दिया है जिसमें ऊपर की ओर जाता तबका अपने वर्गीय हित में 90 फीसद दलितों के एजेंडे को हड़प चुका है। उसने दलितों पर भारी मनोवैज्ञानिक व राजनीतिक बोझ भी डाल दिया है।
भारत में जो संवैधानिक प्रशासन का मॉडल स्वीकार किया गया है, उसे बुर्जुआ लोकतंत्र कहते हैं। यह भीतर से ही बुर्जुआ के हितों की सेवा करने की ओर प्रवृत्त है जो कि जनता के प्रबंधन का एक उपकरण है। इस प्रक्रिया में जनता को लाभ तो मिलता है, लेकिन ऐसा विशुद्ध पूंजीवादी रणनीति के तौर पर ही होता है जिसमें दूसरों के मुकाबले अपने मजदूरों को बेहतर मजदूरी दी जाती है ताकि लंबे समय तक अपना मुनाफा बना रहे। इसके साथ ही मालिक मजदूरों में विभाजन भी पैदा करता है ताकि उनके भीतर सामूहिक मोलभाव की ताकत पैदा न हो सके। बुर्जुआ लोकतंत्र ऐसे ही काम करता है। भारत में यह मॉडल ‘प्रबंधन’ की इस रणनीति के पार जाता है और इसे अपनी सामंती विरासत का इस्तेमाल करते हुए निचले वर्गों के खिलाफ होने में कोई दिक्कत नहीं आती। जिस तरीके से नीतियों को बुर्जुआजी के पक्ष में धोखे से इस्तेमाल किया है (मिसाल के लिए, आनुपातिक प्रतिनिधित्व-जो भारतीय राजनीति में बेहतर प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित कर सकता था-के बजाय फस्र्ट पास्ट दि पोस्ट निर्वाचन प्रणाली को अपनाना; पंचवर्षीय योजनाओं के लिए बॉम्बे प्लान को अपनाना जो पुनर्वितरण के उद्देश्यों को आगे बढ़ाता लगता है; भूमि वितरण में असमानता को कम करने के नाम पर आंशिक भूमि सुधार लागू करना और हरित क्रांति की पूंजीवादी रणनीति को अपनाना ताकि लोगों की भूख खत्म की जा सके), जिस तरीके से संविधान के माध्यम से इसने लोगों को सपना दिखाया और जिस तरीके से इसने जनता के प्रतिरोध को कुचल दिया, यह इसकी सामंती प्रकृति को दिखाता है। इसने बेशक जातियों को बनाए रखने और पहचान की राजनीति को हवा देने का षड्यंत्र किया है। जाहिर तौर पर नवउदारवादी नीतियों ने बुर्जुआ लोकतंत्र की तमाम प्रचलित बुराइयों को बड़े पैमाने पर बढ़ा दिया है।
वर्ग विरोधी और जाति विरोधी आंदोलन की जरूरत
पिछले छह दशक के दौरान हम जाति उन्मूलन के आंबेडकर के सपने को पूरा कर पाने में न सिर्फ नाकाम रहे हैं, बल्कि उस सपने से हम कोसों दूर भी चले आए हैं। आंबेडकर के तथाकथित शिष्य ही इस सपने को दफनाने में सबसे आगे रहे हैं जिन्होंने अपनी-अपनी पहचान के झंडे उसकी कब्र पर गाड़ दिए हैं। ऊंची जातियों को तो अपने जातिगत लाभ बचाए रखने में दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन निचली जातियों को स्वेच्छा से अपनी कलंकित पहचानें ओढ़े रखने में क्या दिलचस्पी हो सकती है? जाति उन्मूलन की आंबेडकरवादी दृष्टि अकेले निचली जातियों की बेहतरी के लिए नहीं इस्तेमाल की जानी थी, बल्कि यह अनिवार्यत: समूची भारतीय जनता के लिए बनी थी। जाति महज भेदभाव या उत्पीडऩ का मामला नहीं है; यह एक ऐसा वायरस है जो समूचे राष्ट्र को अपनी जकड़़ में बांधे हुए है। भारत की हर बुराई और लगातार उसके पिछड़ेपन के पीछे मुख्य कारक यही वायरस है। एक क्रांति के जरिए शरीर की सफाई करके ही इसे निकाला जा सकता है। कोई भी ऊपरी सुधार इस वायरस को नहीं हटा सकता, बल्कि एक गहराई तक जाने वाली लोकतांत्रिक क्रांति ही जमे हुए वर्गों को उनकी जगह से खत्म करेगी और भारत के समाजवादी भविष्य का रास्ता प्रशस्त करेगी। क्रांति समर्थक ताकतों को यह बात पूरी तरह अपने भीतर बैठा लेने की जरूरत है कि जब तक दलित उनके साथ नहीं आएंगे तब तक क्रांति का उनका सपना पूरा नहीं हो पाएगा। इसी तरह जाति विरोधी दलितों के लिए ध्यान देने वाली बात यह है कि जब तक उनके वर्ग के लोग उनसे जुड़ कर उनकी ताकत नहीं बढ़ाते, तब तक जाति उन्मूलन का सपना पूरा नहीं हो सकता। इससे यह बात निकलती है कि इन दोनों खेमों को अपनी ऐतिहासिक गलतियां और भूल दुरुस्त करने के लिए एक समान सरोकार के इर्द-गिर्द मिलकर रणनीति बनानी होगी।
दलितों के लिए यह समझना रणनीतिक अपरिहार्यता है कि जाति सिर्फ सांस्कृतिक या धार्मिक मसला नहीं है बल्कि यह जीवन के हर पहलू के साथ गुंथी हुई है। अधिकतर दलित या तो खेत मजदूर के रूप में या फिर शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में कामगारों के रूप में मुश्किल से अपना पेट भर पा रहे हैं। उनका दलित होना उनकी आर्थिक स्थिति के साथ उलझा हुआ है। उनके ऊपर होने वाले उत्पीडऩ से यह बात आसानी से समझी जा सकती है, जो उन्हें आतंकित कर घुटने टेक देने के लिए विवश करती है। कई मामलों में यह समर्पण दरअसल उच्च जातियों के वर्चस्व में आर्थिक और राजनीतिक लाभ को सुनिश्चित करता है, हालांकि वर्चस्व की ऐसी कार्रवाइयां उसी धर्म के लोगों द्वारा की जाती हैं जो उत्पीडि़तदलितों के वर्ग से ही आते हैं। ऐसे उत्पीडऩ इसलिए संभव हो पाते हैं क्योंकि दलित वित्तीय रूप से कमजोर होते हैं, आर्थिक रूप से निर्भर, नैतिक रूप से खोखले और अपने वर्ग से अलग-थलग होते हैं। इसीलिए आरक्षण की दवा उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए दी गई है ताकि अपनी आजीविका के साधनों पर उनका नियंत्रण हो सके और वे किसी भी तरह के अन्याय का प्रतिकार करने में नैतिक रूप से मजबूत बन सकें व उच्च जातियों के लोगों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम कर सकें। इसका निदान व्यावहारिक तौर पर वही है जो बाबासाहब आंबेडकर ने 1936 में अपने प्रसिद्ध लेख ‘मुक्ति कौन पथे?’ में प्रस्तुत किया था जिसमें उन्होंने इस आंदोलन के लोगों के धर्मांतरण का तर्क मुहैया कराया था। पहला कदम उन्हें जमीन दिलवाना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिलवाना और स्वास्थ्य सेवाए मुहैया करवाना होगा; दूसरा, संघर्ष में आस्था की वैचरिकता बहाली का होगा और तीसरा, अन्य जातियों के साथ वर्गीय एकजुटता कायम करना होगा। कार्यक्रम के स्तर पर विचारधारात्मक तैयारी और वर्ग एकजुटता को पहले होना होगा ताकि सशक्तीकरण के साधनों के लिए संघर्ष को प्रभावी तौर से चलाया जा सके।
ऐसा वर्ग विरोधी (वाम) और जाति विरोधी (दलित) आंदोलनों को दोबारा सही धुरियों पर केंद्रित करने से ही संभव होगा। एक तरफ दलित आंदोलन को जाति के मसलों पर संघर्ष करते हुए खुद को वर्ग की लाइन पर लाना होगा तो दूसरी ओर वाम आंदोलन को इस तरह से निर्देशित करना होगा कि वह जाति के यथार्थ को पहचान सके और संघर्षरत दलितों के साथ एकजुटता कायम करने की जरूरत को महसूस कर सके। यह पहल हालांकि वाम आंदोलन की ओर से ही समुचित वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ होनी चाहिए और इस क्रम में दंभी रवैए को उसे छोडऩा होगा। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक एंटी इंपीरियलिज्म एंड एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट्स में लिखा था, एक बार इस प्रक्रिया की शुरुआत हो गई तो यह एक ऐसे सिलसिले में तब्दील हो जाएगी जिसका अंत बहुप्रतीक्षित भारतीय क्रांति में ही होगा। मुझे कोई और विकल्प नहीं दिखाई देता।
आनंद तेलतुम्बड़े आईआईटी खडग़पुर में प्रोफेसर हैं और जाति और वर्ग से जुड़े सवालों पर मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाने जाते हैं।