बात का भात

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बहुत साल पुरानी बात है, भाईसाहब (राजेन्द्र सिह जी) अपने चार दोस्तों ­­­­­­­­­­­­(नरेन्द्र, सतेन्द्र, केदार व हनुमान) के साथ समाज सेवा के उद्देश्य से किशोरी गाँव में गए थे। तब किसी ने उन लोगों को अपने घरों में नहीं रखा। उनको मंदिर में रहना पड़ा क्योंकि गाँव में कोई भी उनपर भरोसा नहीं कर रहा था।

यह वह समय था जब पंजाब में आतंकवादियों का अविश्वास फैला हुआ था। यह भी एक कारण था कि लोग अनजान लोगों पर भरोसा नहीं करते थे।

दूसरे दिन भाई साहब ने आसपास के लोगो से बात की और जानना चाहा कि कौन-से ऐसे लोग हैं जो अच्छे काम को करना चाहते हैं, उनका सहयोग कर सकते हैं। गाँव के लोगों ने उनको कुछ लोगों के बारे में बताया। जिनमें सूरतगड़ गाँव के सुमेरसिंह मास्टर जी, बासड़ी गाँव के प्रेमाराम जी वकील, जैतपुर के रघुवीर शरण मास्टर जी, इस तरह से कुछ लोगों के बारे में उनको पता चला। ये सब लोग भाईसाहब व उनके दल का सहयोग करने के लिए तैयार हो गए।

सबसे पहले उनको व उनके दल को रहने के लिए जगह चाहिए थी। यह वह समय था जब आश्रम “तरुण भारत संघ’ की स्थापना नहीं हुई थी। तब आश्रम के स्थान पर सिर्फ पथरीली ज़मीन थी। उन लोगों ने भीकमपुरा गाँव के एक घर में रहना शुरु कर दिया। भीकमपुरा से भाईसाहब गोपालपुरा नामक गाँव में जाया करते थे। गोपालपुरा गाँव में उनकी मुलाकात मांगू पटेल (मांगू बाबा) से हुई। उन्होंने मांगू बाबा को बताया कि वे समाज सेवा का काम करने आए हैं।

मांगू बाबा को यह समाज सेवा वाली बात समझ में नहीं आई। उनको लगता था, ये पढ़े-लिखे लोग सिर्फ बात का भात खाते हैं, यानि सिर्फ बात करना जानते हैं और उससे जो मिल जाए उसी को खाते हैं। उनको भाई साहब की बात पर विश्वास नहीं हुआ। भाईसाहब और उनके साथी बार-बार मांगू बाबा के गाँव में जाने लगे। जब ये लोग जाते थे तो मांगू बाबा को इनसे चिढ़ होने लगी। एक बार उन्होंने गुस्से में कह दिया यदि आप हमारे लिए कुछ करना चाहते हैं तो कृपा करके कल से यहाँ नहीं आईएगा।

भाई साहब को उस दिन बहुत दुख हुआ। उनके चारों साथियों को तो ज्यादा बुरा लगा और वे उसी समय वहाँ से उठकर चले गये। लेकिन भाई साहब वहीं पर बैठे रहे। जब मांगू बाबा का गुस्सा शांत हुआ तब भाईसाहब ने उनसे  पूछा, ‘आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि हम कल से यहाँ नहीं आएँ , हमने ऐसा क्या किया है’। तब मांगू बाबा ने फिर यही बात कही कि लोग काम तो करते नहीं बस बात का भात खाने आते हैं।

भाई साहब ने कहा आप बताओ तो हम क्या करें? मांगू बाबा ने टालने के लहजे में कहा, ‘मैं बता तो दूँगा पर तुम कर नहीं पाओगे’। भाई साहब ने कहा, ‘आप बताओ तो सही’। तब मांगू बाबा ने कहा ठीक है, ‘कल आप मिट्टी खोदने के औज़ार गैती, फावड़ा और परात लेकर यहाँ आ जाओ। हमारे पास ये सब औज़ार हैं, पर हम आपको नहीं देंगे। आप अपने लेकर आएँ। काम क्या करना है वह भी हम कल ही बताएंगे’। उन्हें लगा ऐसा कहने के बाद ये लोग कल से अपने आप ही नहीं आएँगे। रोज़-रोज़ की समाज सेवा का जिक्र भी अपने आप खतम हो जाएगा।

पर अगले दिन भाईसाहब कहीं से अपना गैती ,फावड़ा और परात लेकर पहुँच गये। मांगू पटेल से बोले, ‘क्या करुँ मैं’? अब मांगू पटेल सोच में पड़ गया। मांगू बाबा ने उनसे छोटा तालाब (जोहड़ी*) बनाने को कहा जिसे चबूतरे वाली जोहड़ी भी कहते हैं। उन्होंने कहा यहाँ से मिट्टी खोदो और इस पाल में डालो । भाईसाहब ने पूरे मनोयोग से यह काम शुरु कर दिया।

कुछ दिन बाद मांगू बाबा को समझ में आ गया यह लड़का काम का आदमी है। इससे तो बड़ा काम लेना चाहिए, यह तो छोटा काम है। उनके गाँव में किसी ज़माने में २२ तालाब थे जिनमें पहले पानी रहता था। तब उनसे जुड़े कुओं में भी पानी रहता था और जब कुओं में पानी रहता था तो खेतों की सिंचाई होती थी। लेकिन अब वे सब कुएँ  सूख चुके थे। यह सन् १९८५/८६ और ८७ की बात थी। अब केवल एक कुएँ  में पीने लायक पानी बचा था।              

मांगू ने देखा अब जब भाईसाहब के प्रयासों से ‘छोटे तालाब’ का काम तो चल निकला है, तो उसने  गाँव वालों के साथ मीटिंग की। मीटिंग (मुलाकात) में मांगू बाबा ने कहा ‘इस तालाब को तो हम कर लेंगे, छोटा-सा काम है राजेन्द्रसिंह से बड़ा काम लेना चाहिए। सबको यह विचार अच्छा लगा। बस फिर क्या था दूसरे दिन जब भाई साहब काम पर आए तो उन्होंने देखा गाँव के सब लोग छोटी ‘जोहड़ी’ बनाने के काम पर लगे हुए हैं। उन्हें बहुत हैरानी हुई। उन्होंने कहा, ‘आज यह क्या बात है’।

तब मांगू बाबा ने भाई साहब से कहा, “ये काम तो हम कर लेंगे। आप हमारे उन २२ तालाबों पर काम करें जो मिट्टी से भर गये हैं और टूट गये हैं। आज उनका नामोनिशान भी नहीं रहा। उनको आप ठीक करवाएँ हम भी आपकी मदद करेंगे श्रमदान का ३/४ हिस्सा आपका होगा और १/४ हिस्सा हमारा होगा।”

फिर बाहर से गेहूँ की मदद आई और उसके बदले में काम शुरु हुआ। एक दिन के आठ किलो गेहूँ मिलते थे,  उसमें चौथाई हिस्सा गाँव वालों का होता था । आसपास के गाँव के लोग इस काम को देखने आते थे, तो पूछते थे ये काम किस प्रकार से हो रहा है। उनको लगता था जैसे कोई धार्मिक काम हो रहा है और अपने आप संचालित हो रहा है। जब उनको पता चला राजेन्द्रसिंह नाम के कोई हैं जो इस काम को करवा रहे हैं, तो उन लोगों ने भी भाई साहब से संपर्क किया।

बस फिर क्या था, भाई साहब की मदद से उनके गाँव में भी काम शुरु हो गया। उनके गाँव में जो रिश्तेदार आते थे उनको भी भाई साहब के बारे में पता चला, तो उन्हों ने भी भाई साहब से संपर्क किया। भाई साहब  मदद से उनके गाँवों में भी काम शुरु हो गया।

इस प्रकार गाँव से गाँव होता हुआ काम आगे बढ़ता गया। भाई साहब के दल के सदस्य पद यात्राएँ निकालने लगे। ये यात्राएँ तीन प्रकार की होती थीं। पेड़ लगाओ पेड़ बचाओ पदयात्रा, जोहड़ बनाओ पानी बचाओ पदयात्रा और ग्राम स्वावलम्बन पदयात्रा। जहाँ जाते वहाँ नये लोग प्रेरित होते थे और उनके साथ जुड़ते जाते। वे लोग राजेन्द्र साहब के साथ काम शुरु करते जाते। इस प्रकार काम बढ़ते –बढ़ते आज बहुत आगे पहुँच गया।

ये यात्राएँ आज भी चल रही हैं। देश ही नहीं विदेश तक में इनका प्रचार हो रहा है। भाई साहब दुनिया भर को इस काम के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इस प्रकार अन्तत: भाई साहब ने सबको लोहा मनवा ही दिया। ‘भाई साहब /जल पुरुष /राजेन्द्र सिंह जी’ ने सिद्ध कर दिया वे ‘गोपालपुरा’ केवल ‘बात का भात’ खाने नहीं गए थे।

(‘तरुण भारत संघ’ के गोपाल सिंह  द्वारा सुनाई कथा पर आधािरत, अलवर, राजस्थान )

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