Pratyaksha is an Indian writer, poetess, blogger and essayist who writes both in English and Hindi . She has contributed with numerous articles, social commentaries, prose and poetry reviews to journals and newspapers print or online. She has published ten books with major publishers like Harper, Juggernaut, Rajkamal, Aadhar and Gyanpeeth. Her books have won critical acclaim and love from readers as well as senior writers. She has won a number of awards, among them the Indo Norwegian award, Hans Katha Samman, Krishna Baldev Vaid fellowship and has also been a resident of Sangam House. She loves to paint and is passionately into music when she has time.
In October 2022, while Pratyaksha was in the U.S. on a Kalam scholarship funded by the Prabha Khaitan Foundation and hosted by Jhilmil USA, she visited NYU and spent sometime with the Hindi students. She generously shared several short stories with characters from the tribal and rural communities in India and some of her paintings to be published on Virtual Hindi.
The story below is from Pratyaksha’s first short story collection also entitled जंगल का जादू तिल तिल. Included are the author’s short introductory remarks, the author’s voice-recording of each part. At the bottom of the page a link to her own English translation of this story and links to more short stories along with the author’s voice-recordings are available as well.
जंगल का जादू तिल तिल
Author’s introduction of the three parts of the short story:
मंगलवारी हाट का दिन था । लाल मोर्रम की ज़मीन रात की बरसा से भीगी थी । सागवान के पत्ते से पानी अब भी टपटप चू रहा था । नीले चिमचिमी को रस्सी से बाँधकर थोडा आड बना दुकानें सज
रही थीं ।पेड के तने से लाल चींटों की मोटी कतार व्यस्त सिपाहियों सी मुस्तैदी से काली लकीर खींचती थीं । नीचे ज़मीन पर भुरभुरी मिट्टी के टीले में फिर अचानक से बिला भी जातीं । किसी के पाँव पर चढ गये तो छिलमिला कर उछलने का औचक नृत्य भी दिख जाता ।
भनभन भनभन आवाज़ इधर उधर घूमती है इस छोर से उस छोर । तेज़ तीखी, मोलभाव करती,हडिये के नशे में झगडती, उकसाती, दबे छिपे हँसते किलकते और फिर दिन ढलते थकी हारी,बेचैन थरथराती,बुझते ढिबरी के काँपते सिमटते लौ सी । अँधेरा होते ही सब सिमटता है । अलाव की रौशनी में उजाड पडे चौकोर गुमटियों के निशान, कागज़ की चिन्दियाँ, पत्तल और कुल्हड । रेजगारी की छनछनाहट,नोटों की करकराहट । कुछ बुझे उदास चेहरे,धूसर मिट्टी में सने पैरों के तलवे, रबर की चप्पलें और जंगल में सुनसन्नाटे में खोते पाते अकेले रास्ते । जंगल का जादू कहीं बिला गया है । सच कहीं बिला गया है । जंगल अब कुछ नहीं देता । पानी सूख गया है । पत्थर से आग निकलती है । जानवर सब भी कहीं लुकछिप गये हैं । कोई शिकार बरसों से नहीं हुआ है । तीर और भाले किसी और ही समय के खिलौने हैं । सिंगबोंगा,सूरज देवता भी रूठ गया है तभी आग बरसाता है । मुँडा,खडिया, ओराँव,सब आसमान ताकते हैं । पानी टप टप चूता है आसमान से लगातार लगातार । अंधेरा परत बनाता है इतना इतना कि हाथ को हाथ न सूझे । गाँव के लडके अब अंधेरा पीते हैं । दिन भर रात भर । और कुछ जो करने को नहीं । इतना घुप्प अँधेरा है कि सपना तक नहीं दिखता । मँगरू बाँसुरी बजाये तो भी नहीं ।
रेलवे स्टेशन पर नीरव शांति है । शेड के ठीक बाहर एक अकेला पेड दोपहरी की गर्म हवा में धीरे धीरे डोल रहा है ।लाल ईंटों का जालीदार घेरा और सबसे ऊपर सफेद धारी के भीतर कैद पेड की पत्तियाँ किसी उदास गीत के संगत में उड कर नीचे गिर रही हैं ।शाम तक कुरमुरी पत्तियों से जमीन ढक जायेगा । बूढा चित्तकबरा कुत्ता पंजों पर सर टिकाये सुस्त उदास आँखों से गाहे बगाहे मुआयना कर लेता है । फिर गहरी उसाँस भर सिर टिका आँखें मून्द लेता है । जब ट्रेन आयेगी, चित्तकबरा जाग उठेगा । तब उसकी स्फूर्ति देखने लायक होगी ।शायद कोई सवारी ट्रेन की खिडकी की सलाखों के पार कोई पावरोटी का सूखा बुसा टुकडा, या फिर भुरभुरी नान खटाई ही फेंक दे । माल गाडी के पीछे पाईप से मोटे पानी का धार हरहरा के बह रहा है । कोने पर के लकडी की गुमटी में शीशे के बोइयाम में किसिम किसिम की रंगीन गोली, लेमनचूस और बिस्कुट सजे हैं कतार बद्ध। ढीठ मक्खियों का जमघट है जो हटाये जाने के बावजूद फिर पल भर में ही दोबारा मर्तबानों पर जमक जाती हैं । बुड्ढा दुकानदार भी आदतन,सोते उँघते,रह रह झाडन चला देता है मक्खियों पर ।तीन चालीस की डेली पसेंजर आयेगी तो उसमें भी हरकत आ जायेगी ।फिलहाल,किसी भी गाडी के आने में बहुत वक्त है, बहुत । छिटपुट सवारियाँ स्टेशन के एकमात्र लकडी के बेंच पर पाँव समेटे नींद के चपेटे में झुक रहे हैं । इनसब से दूर औरत खडी है, पीले मार्किन के चादर में पीठ पर बादुर जैसा बँधा सात आठ महीने का बच्चा । उसके खडे होने की भंगिमा में एक आतुरता है, बेचैनी है डर और घबडाहट है ।
अब जंगल संगी नहीं है । अब गाँव भी संगी नहीं है ।अब इन्द नहीं है, सरहुल नहीं है ।अब पोखर में मछली नहीं है, पेडों पर फल नहीं है । अब खेत बंजर हैं, अब जंगल भागता है, छिपता है, काले पत्थर वाली चट्टान दरकती है, धरती अब आग उगलती है । गुलाबी टीन के बक्से पर फूल पत्ती लहरदार हैं । जमा किये पैसों से जोगा के खरीदा है । झुमकी और भउआ की समूची अमानत, सारी जमा पूँजी । झुमकी बार बार पैरों से छुआती है बक्से को । आश्वस्त होना चहती है कि टीन का बक्सा उसी का है, उसी के पास है । मुड के निहारती है, लम्बा सलोना भउआ । बच्चे के हाथ उसके बालों को अनजानते टटोलते हैं, उसकी कच्ची दूध की महक, उसके भोलेपन की महक, उसके बदन का गुनगुना भार पीठ पर ।
सगुनिया इतरा कर छनक पडती है । नाईलोन की फूलदार साडी का फेंटा कमर में खुंसा है जिसके पीछे से कमर का सलोना साँवला चिकना हिस्सा दिप दिप करता है, धूप में चमकती फिसलती अलकतरे की सडक पर पानी की आभासी छाया जैसे । बिरवा, लम्बा छरहरा तेल पानी सा चिकना, चौडी छाती और लम्बे पतले टाँगों वाला, हँसता है हँसता है, हँसता जाता है । पुलिया के नीचे पानी बहता है कलकल कलकल । दूर पेडों की छाया साँझ ढले सिमटती सिहरती है धीमे से फुसफुसाती है पत्तियाँ, अँधेरा उतरता है पत्तियों पर, टहनियों पर, तनों पर जडों की मिट्टियोँ पर, बिरवा की खुली मुट्ठियोँ पर, आँखों पर । जंगल अब सिर्फ आँखों में बन्द सपना है । ऐसा सपना जहाँ लौट कर जाना मना है मना है । ऐसा सपना जिसे देखना मना है । लौटना है फिर उस बीहड से इस बीहड में, जहाँ दुख एक नंगा तार है,मन जिसके इर्दगिर्द सतर्क चौकन्ना चहलकदमी करता है । रात रात टाल पर चित्त लेटे आँखें देखती हैं अनगिनत तारे, एकदम एकदम चकमक, पत्थर सी चकमक, जंगल में रात,बाघ की चमकती जलती आँखें, पानी में चहलती केवई मछली का दप दप रौशनी मारता चोंईयाँ । दिल फटता है तेंदू पत्ते सा । गाँव घर गोतिया सब छूटा, सब छूटा, साँस छूटी तार छूटा, छूटा रे सब छूटा ।