गंगा तट पर प्रतिज्ञा

जो लोग गांधी युग में रहे हैं, उन्हें यह बात भली भाँती विदित है कि गांधी आज़ादी की आंधी थे। जैसे आंधी के आने पर वातावरण में एक तीव्र परिवर्तन आता है, उसी तरह जब गांधी इस देश की राजनीति में आये तो उनका रूप रंग ही कुछ और हो गया। महामना मदन-मोहन मालवीया और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक गांधी जी के भारत में आने से पहले देश की राजनीति का संचालन कर रहे थे। ये दोनों नेता भी भारतीय जनता की आकांक्षाओं को एक सही शक्ल देने और उन्हें स्वतंत्रता की ओर उन्मुख करने का आंदोलन चला रहे थे। गांधी जी ने इन्ही आंदोलनों को कुछ तीव्र किया और भारत की  गौरवशालिनी राष्ट्रीय परम्पराओं को अग्रसर होने के लिए व्यापक क्षेत्र दिया। 

गांधी जी भारत में अफ्रीका से आये थे और वहां पर भी उन्होंने प्रवासी भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई अहिंसात्मक ढंग से लड़कर अपने लिए यश अर्जित किया था और भारत का नाम ऊँचा किया था। प्रवासी भारतीयों को सम्मानपूर्ण स्थिति दिलाने के लिए जो यत्न किये उनका सारे विश्व पर बड़ा सद्प्रभाव पड़ा। गांधी जी से पहले स्वामी विवेकानंद और स्वामी राम तीर्थ ने भारतीय दर्शन और संस्कृति के ध्वज को विदेशों में ऊँचा उठाया था।  गांधी जी ने अफ्रीका में न केवल इस ध्वज को थाम लिया अपितु अपने व्यवहार से भारत के उठते हुए स्वरूप को संसार के सामने प्रदर्शित किया। अफ्रीका में जो प्रवासी भारतीय उस समय रह रहे थे वे विद्वद्वर्ग के लोग नहीं थे , छोटे छोटे लोग थे जो मेहनत मज़दूरी करके अपने जीवन की गाड़ी को चला रहे थे। गांधी जी का कथन है कि वे लोग छोटे होते हुए भी परिश्रमी और शिष्ट थे, और किसी भी देश के लिए गौरव का कारण हो सकते थे। 

अफ्रीका में रहने वाले गोरे इन छोटे किन्तु शिष्ट और परिश्रमी भारतीयों को रंगभेद की नीति के आधार पर दंडनीय मानते थे और उनके साथ असद्व्यवहार करते थे। गांधीजी गोरों की भेदभाव पूर्ण नीति के विरुद्ध उठ खड़े हुए और ये छोटे छोटे भारतीय उनके साथ इस तरह लग लिए जैसे राम-रावण युद्ध में जंगली जाति के लोग राम के सहयोगी बन गए थे। अफ्रीका में गांधीजी की भूमिका राम की भूमिका की परंपरा से जुडी हुई थी। वह यूँ भी राम भक्त थे, ऐसे राम भक्त की गोडसे की गोली से मरने के समय भी उनके मूँह से ‘हे राम’ शब्द निकले थे। वह रामचरित मानस के अध्येता थे और राम के आदर्शों पर चलने की चेष्टा करते थे। 

गांधी जी की उच्च शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड में हुई थी। शुरू शुरू में वे अंग्रेजी सभ्यता से प्रभावित भी हुए थे, परंतु उन पर भारतीय संस्कृति और दर्शन का ऐसा गहरा रंग चढ़ा था कि अंग्रेजी सभ्यता का भूत उनके सर पर अधिक दिनों तक न रह सका। उन्होंने अंग्रेज़ों की संस्कृति से केवल ऐसे ही तत्त्व ग्रहण किये जो भारतीय संस्कृति के अनुकूल थे। इंग्लैंड प्रवास का उनपर एक ही प्रभाव पड़ा और वह यह कि भारतीय दर्शन और संस्कृति के अनुरूप चल कर भारतीय जन भी अंग्रेज़ों की तरह स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में रह सकते हैं। इसलिए वह अंग्रेज़ों की स्वतंत्रता परक भावनाओं का विशेष अध्ययन करने लगे। शिक्षा समाप्ति के बाद बैरिस्टर के रूप में जब वह अफ्रीका आये थे तो उन्होंने प्रवासी भारतीयों में अपने देश के दर्शन और सांस्कृतिक भावों की अलख जगाकर उन्हें स्वतंत्रता की और प्रेरित किया। वहाँ पर उन्होंने छोटे पैमाने पर सत्याग्रह का भी प्रयोग किया था। गांधी जी के बाल जीवन में ही अपने पारिवारिक प्रभाव के कारण सत्य और अहिंसा की छाप लग चुकी थी।  इन्ही दो विशिष्ट गुणों को उन्होंने सार्वजनिक जीवन में एक आंदोलन का रूप दिया था, जिसका बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ा।   

अफ्रीका से जब वह भारत आये तो कुछ दिन उन्होने भारत में भी बैरिस्टरी की। लेकिन यहाँ की दासता और उससे प्रसूत हीन वृत्तियाँ उन्हें सहन न हुई और उन्होंने भारत की राजनीति में देश को स्वतंत्र करने के उद्देश्य से भाग लेने का निर्णय ले लिया। खद्दर की कमीज और खद्दर का पायजामा ये उनके वस्त्र थे। उनकी पत्नी श्रीमती कस्तूरबा गांधी भी अत्यंत सरलवेशा थीं। दोनों की भारतीयोचित सरल वेशभूषा, प्रवासी भारतीयों के लिए किया गया कार्य, भारतीय संस्कृति में गंभीर रूचि – इन सब चीज़ो ने भारत में २८ वर्ष आने के बाद भी उन्हें यहाँ पर बेगाना और अजनबी न रहने दिया। देश में आकर गांधीजी ने यह भी स्पष्ट किया कि वह पुनः विदेश नहीं जायेंगे और भारत में रहकर ही राष्ट्र सेवा करेंगे। 

८ अप्रैल सन १९१५ को गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में वह महात्मा मुंशीराम उर्फ़ स्वामी श्रद्धानन्द से मिले थे। वहाँ पर दिए गए एक मानपत्र के उत्तर में उन्होंने कहा था – ‘मेरे प्रति महात्मा मुंशीराम जी का जो प्रेम है, उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। मैं सिर्फ उनसे मिलने के लिए ही हरिद्वार आया हूँ क्योंकि, श्री एन्ड्रूयूज ने उनका नाम भारत के उन महापुरुषों में गिनाया था, जिनसे मुझे मिलना ही चाहिए।“

‘ब्रह्मचारियों ने अपने अफ्रीका वासी भारतीय भाइयों की सहायता के लिए जो धन भेजा है, उसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। और गुरुकुल में फीनिक्स वासी छात्रों के प्रति प्रेम और स्नेह का व्यवहार किये जाने पर ब्रह्मचारियों और महात्मा मुंशीराम जी का विशेष आभार मानता हूँ। मुझे अपनी गुरुकुल तीर्थयात्रा से बहुत संतोष हुआ है।’

गांधी जी ने अपने इस भाषण में यह भी कहा – ‘महात्मा जी ने मुझे अपने एक पत्र में भाई कहा है, इसका मुझे गर्व है। कृपया आप लोग यही प्रार्थना करें कि मैं उनका भाई बनने के योग्य बन सकूँ। मैं २८ वर्ष के बाद अपने देश में आया हूँ, मैं कोई सलाह नहीं दे सकता। मैं तो मार्ग दर्शन प्राप्त करने के लिए आया हूँ। जो भी व्यक्ति मातृभूमि की सेवा में लगा है, उसके सामने झुकने के लिए तैयार हूँ। मैं अपने देश की सेवा में अपने प्राण देने को तैयार हूँ। अब मैं विदेश नहीं जाऊंगा। मेरे एक भाई चल बसे हैं। मैं चाहता हूँ कि कोई मेरा मार्ग दर्शन करें। मुझे आशा है कि महात्मा जी उनका स्थान ले लेंगे और मुझे भाई मानेंगे।’

इस भाषणांश से यह प्रकट है कि गांधीजी भारत में ‘करो या मरो’ की भावना से ही आये थे। वह भारतीय संस्कृति और भारत देश के प्रति पहले से ही समर्पित थे। अब तो उनका निश्चय उस समर्पण को अनन्य और तीव्रतम बनाने का था। इसी भावना से उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन का कार्यक्रम बनाया और अपनी एक निश्चित जीवन पद्धति बनायीं। इस कार्यक्रम और पद्धति में हठवाद न था, देश और काल के अनुसार उनकी भारतीयता से पली भावभूमि में परिवर्तन भी हो सकते थे। ऐसे परिवर्तन वह अंत तक करते रहे। अपनी मूक भावना सत्यगर्भित अहिंसा को लेकर उन्होंने भारत के जनजीवन और अपनी सार्वजनिक जीवन योग में अनेक प्रयोग किये और उन प्रयोगों को भारत और विश्व के मनीषियों ने गांधीवाद की संज्ञा दी। 

गांधी जी के सार्वजनिक जीवन की सबसे पहली विशेषता यह रही कि वह भारत के जनजीवन में घुल मिल गए। हरिद्वार में महात्मा मुंशीराम से मिलकर जब वह मद्रास गए तो मद्रास के स्टेशन पर अपार जनसमूह उनका स्वागत करने के लिए आया था। लोग उन्हें फर्स्ट या सेकंड क्लास में तलाश रहे थे। वहां पर न मिलने पर वे निराश हो रहे थे, गार्ड ने लोगों को बतलाया कि गांधी दम्पति रेल गाडी के पिछले भाग में थर्ड क्लास में हैं। लोगों ने देखा की खद्दर की कमीज और पायजामे में यात्रा से क्लांत एक कृश काय व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ है। लम्बी यात्रा के कारण उसके कपडे मैले थे, जिसकी उसे चिंता न थी।  भारत की स्वतंत्रता के लिए कृतसंकल्प ऐसे व्यक्ति को देख कर जनसमूह धन्य हो गया। जुलूस के लिए जो घोड़ों की बग्गी आई थी उसमे से छात्रों ने घोड़े निकाल दिए और इस अनूठे व्यक्ति को कस्तूरबा समेत बग्गी में बैठाकर अपने हाथों से उसे खींचने लगे। यह गांधी का जुलूस था, भारत के नए नेता का जुलूस, जो भारत को सामान्य भारतीयों के साथ घुल मिल कर उसे आज़ाद कराने के लिए अफ्रीका से आया था।      

इस नए नेता ने सत्य को अपनाने पर बल दिया, अहिंसा और चरित्र निर्माण, अपरिग्रह, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के पालन पर ज़ोर दिया।  हाथ की बानी हुई चीज़ों का इस्तेमाल करने की बात कही। विदेशी रहन सहन के ढंगों को छोड़कर हिन्दुस्तानी ढंग अपनाने को कहा। कातरता को छोड़कर निर्भय भाव से रहने को कहा, यहाँ के लोगों को कहा कि यहाँ के व्रत उपवास के नए अर्थ बतलाये, यहाँ के दर्शन को, यहाँ की संस्कृति को, यहाँ की सभ्यता को, यहाँ की परंपरा को, यहाँ के धर्म को, और यहाँ के आचार-विचार को नयी अर्थभूमि दी। श्रद्धा के भावों से भरा यह नेता भारतीय जनता के लिए श्रद्धा का प्रतिरूप बनकर खड़ा होने लगा। लोगों को उस पर विश्वास होने लगा। अपने में अपने गुणों के प्रति श्रद्धा और विश्वास गहरा करके उसने जनता के प्रति अपनी श्रद्धा-विश्वास को गहरा किया और जनता भी इस नेता में श्रद्धा और विश्वास करती चली गयी। यह गांधी था, श्रद्धा का प्रतीक, भारत का नया नेता, भारत की संस्कृति का मूर्तिमान प्रतीक, भारत के मनीषी  महापुरुषों की परंपरा की एक अगली कड़ी, जिसमे हिंदुत्व के श्रेष्ठ गुण थे, इस दृष्टि से कि हिन्दू प्राणीमात्र के हित की चिंता करता है, इसीलिए इसमें साम्प्रदायिक और जातीय विद्वेष नहीं थे, यह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई – सब का भाई था। 

हरिद्वार से लौट कर मद्रास में भारत सेवक समाज के भवन में गोखले क्लब के सदस्यों से बातचीत करते हुए गांधी जी ने कहा था — ‘मैंने फीनिक्स आश्रम की योजना मातृभूमि की सेवा के लिए लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से बनायीं है। आश्रम में चरित्र निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया जायेगा और  उसमे कई देशी भाषाएं सिखाई जाएँगी। मेरी राय में ब्रह्मचर्य का पालन सभी राष्ट्र सेवकों के लिए आवश्यक है। और यह शर्त आश्रम में प्रवेश पाने के लिए आवश्यक होंगी। आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य होगा, सबको इसकी शिक्षा भी दी जाएगी। विशेषतर, खेती सम्बन्धी कामों की। आश्रम में विवाहित और अविवाहित स्त्री-पुरुष, दोनों ही प्रवेश पा सकते हैं। 

इस गोष्ठी में एक व्यक्ति ने प्रश्न किया की क्या आप, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ऐसे आदर्श मानते हैं जिनका सारा देश अनुकरण करें? गांधी जी ने कहा, ‘मैं निःसंकोच देश को इसका अनुकरण करने के लिए कहता हूँ। किन्तु मैं यह भी मानता हूँ कि समस्त राष्ट्रों के लिए उनपर नैतिक रूप से आचरण करना असंभव है। आचरण के लिए मैं जीवन में दो सिद्धांतों को सर्वोपरि मानता हूँ- सत्य, प्रेम और अहिंसा। अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी को शारीरिक या मानसिक कष्ट न देना। जहाँ तक राजनीति में सत्याग्रह के प्रयोग का सम्बन्ध है मैं आप लोगों को बतला देना चाहता हूँ कि सत्याग्रह के शस्त्र को काम में लाना बड़ा कठिन है, और उसका प्रयोग अंतिम साधन के रूप में एवं राष्ट्रीय सम्मान जैसे अत्यंत प्रिय हितों की रक्षार्थ ही किया जाना चाहिए। मैं सब तरह के शस्त्रास्त्र उपयोग करने के विरुद्ध हूँ, और केवल हाथ की बानी हुई चीज़ का प्रयोग करना चाहता हूँ।’

सभा विसर्जन के बाद हर एक उपस्थित व्यक्ति ने यह अनुभव किया कि वह गांधी जी के प्रेरणाप्रद भाषण से शुद्ध हो गया । 

गांधी जी के इस भाषणांश से उनकी प्रवृत्ति का पता चल जाता है। गांधी जी प्राचीन भारत के ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शुद्धता, इन्द्रिय निग्रह, आदि सिद्धांतों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के सन्दर्भ में नए अर्थ देना चाहते थे। 

८ मई १९१५ को बंगलौर में वहां के नागरिकों से बातचीत करते हुए गांधी जी ने कहा था, ‘भारत देश दिन पर दिन दरिद्र होता जा रहा है। और इस दरिद्रता का कारण देशी करघों की बुनाई का काम खत्म करने वाली भीषण पप्रतिद्वंद्विता और इस देश से कच्चे माल का बराबर बाहर भेजा जाना ही है।’ उन्होंने देश की आर्थिक नीति को भी यथार्थ रूप में देखा है। इसी यथार्थ के आधार पे उन्होंने अपना आर्थिक कार्यक्रम बनाया। उन्होंने किसानों को अधिकाधिक उत्पादन के लिए प्रेरित किया। किन्तु उनकी यह प्रेरणा ढोल की पोल न थी, उन्होंने किसानों से अंग्रेजी साम्राज्यवाद की गलत कृषि नीति से संघर्ष रत होने के लिए भी कहा। देश के प्रमुख कपडा व्यवसाय को अग्रसर करने के लिए उन्होंने स्वदेशी आंदोलन की भूमिका तैयार करनी प्रारम्भ की। 

उन्होंने भारत के संपन्न और विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्गों की कृत्रिम जीवन प्रणाली की ओर भी दृष्टिपात किया। बंगलौर के नागरिकों से उन्होंने कहा , ‘हमारा रहन सहन एकदम यूरोपीय ढंग का होता जा रहा है, और इस तरह बहुत हद् तक हम अपना आत्माभिमान खो बैठे हैं। हम लोग अंग्रेजी में ही सोचते और बातचीत करते हैं। इस प्रकार हम लोग अपनी देशी भाषाओं को बेकार बना रहे हैं और जनता की भावना से विमुख होते जा रहे हैं। अपनी मातृभूमि की सेवा करने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान बहोत आवश्यक नहीं है। ‘ इसी सन्दर्भ में उन्होंने देशी भाषाओँ के साहित्यिक पुस्तकालय की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा, ‘देशी भाषाओँ का साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। मैं एक ऐसा पुस्तकालय चाहता हूँ जिसमे सब भारतीय भाषाओं की पुस्तकें संगृहीत की जाये। मित्रों से मेरी प्रार्थना है कि वह ऐसा पुस्तकालय स्थापित करने के लिए आर्थिक सहायता दें।’

गांधी जी ने जहा राष्ट्रीय भाषाओं के सम्मलेन और विकास पे बल दिया, वहां देश की भावात्मक एकता के लिए भारतीय नीति को अपना बड़ा अस्त्र बनाया। इसी नीति के रूप में उन्होंने सत्य को लिया। गांधी जी के यहाँ सत्य, प्रेम और अहिंसा तीनो एकाकार थे। उनकी मान्यता थी की धर्म एक होता है, चाहे उसे सत्य कह लिया जाये, चाहे प्रेम और चाहे अहिंसा। सत्य का तत्वार्थ भी मानवता की सेवा है तथा प्रेम और अहिंसा का तत्वार्थ भी। धर्म की इस कोमल किन्तु बलिष्ठ, या कहना चाहिए, कुसुम से भी कोमल किन्तु पाषाण से भी कठिन इस वृत्ति को उन्होंने लोक जीवन में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने कहा, ‘सत्याग्रह एक बड़ा भारी नैतिक बल है, वह दुर्बल के लिए भी है और बलवान के लिए भी। आत्मिक बल अपने पर निर्भर करता है। आदर्शों को आचार में उतारना चाहिए नहीं तो वे कारगर नहीं हो पाते। आदर्श को जानना एक बात है और कार्य रूप में परिणत करना दूसरी। उससे अनुशाशन में वृद्धि होती है और फलस्वरूप अति सेवा की जा सकती है। सत्याग्रह एक ज़बरदस्त आक्रमणशील शक्ति है। ‘

गांधीजी केवल विचारों पर ही बल नहीं देते थे, वह क्रियात्मक भाव को अधिक महत्त्व प्रदान करते थे।  व्यवहारिक जीवन में संलग्न रखने के कारण अपने अनुभव से उन्होंने उपनिषदों के ‘चरैवेति चरैवेति’ सिद्धांत के अर्थ को नए सन्दर्भों में पूरी तरह पहचान लिया था।  वह यह जान गए थे कि कर्म की गति से ही आध्यात्मिक और मानसिक एकता पुष्ट होती है। गाल बजाने वाले कोरे पंडित किसी परिणाम पर नहीं पहुंच पाते।  कर्मप्रधान आदर्श को लेकर उन्होंने देश की जनता का आह्वान किया। जनता आगे आई और गांधी के भारतीय सूत्रों को लेकर उसने क्रान्ति की रचनात्मक रचना प्रारम्भ कर दी। 

उन्होंने भारतीय संस्कृति इसी क्रांति क्रम के प्रसंग में भारत के साधुओं का आह्वान किया :’हर नदी अपना प्रवाह बदलती है। यहाँ १५ लाख साधू है और यदि प्रत्येक साधू अपने कर्त्तव्य का पालन करे तो भारत का बहुत कुछ हित हो सकता है। जगद्गुरु शंकराचार्य अब जगद्गुरु कहलाने योग्य नहीं हैं, क्योंकि अब उनमे शक्ति नहीं बची। ‘

उन्होंने भारतीय आदर्शों के सम्बन्ध में कहा कि वे बड़े अनूठे हैं, और उन्ही के कारण पतन काल ने भारतीयों को नैतिक और सद्गुण संपन्न माना जाता है। उनका भाषणांश है :

‘विद्वेषपूर्ण भौतिक गतिविधि अच्छी नहीं होती, उससे ऐश आराम के चीज़ों की वृद्धि होती है, भारतीय संस्थाओं पर जिन्हे फिर से हिन्दू धर्म के आदर्शों के अनुसार ढालना होगा। आधुनिक उद्योगों और  अत्यधिक भार नहीं डाला जाना चाहिए, पुण्य या सत्कार्य को जितना अधिक महत्व भारतवर्ष में दिया जाता है उतना विदेशों में और कही नहीं।  दुसरे देशों के लोग दशरथ को मूर्ख समझते हैं क्योंकि उन्होंने अपने स्त्री को दिए गए वचन का पालन किया। यह भारतीय मानते है कि ‘प्राण जाहिं पर वचन न जाहीं।’ यह एक बड़ी बात है, भौतिक क्रियाकलाप दोशोत्पादक हैं। अंत में विजय सत्य की ही होती है। ‘

गांधी जी ने सत्य के सभी पक्षों को प्याज के छिलके की तरह उखाड़ कर देखा। हिन्दू समाज के अंतराल में झांकर उन्होंने देखा कि उसमें  सामाजिक सत्य की गति ठीक नहीं है। उन्होंने वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा की आलोचना नहीं की, लेकिन शूद्रों के साथ होने वाले विषम व्यवहार ही अवश्य ही निंदा की। मद्रास के मयावरम नामक स्थान में उन्होंने कहा, ‘वहां पर अवर्णों की स्थिति मन को कचोटने वाली है। अवर्ण सम्बन्धी उनका भाषणांश इस प्रकार है :

‘यह बिलकुल संयोग की बात है कि मुझे अपने पञ्चम (वर्ण) के भाइयों से मान पाने का सम्मान प्राप्त हुआ। और उसमे उन्होंने कहा कि उन्हें पीने के पानी की तंगी है। उन्हें जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुवें नहीं मिलती। और वे न ज़मीन खरीद सकते हैं न अपने पास रख सकते हैं, न्याय के लिए उनका अदालत में जाना भी मुश्किल है। संभवतः अंतिम बात का कारण उनका भय ही हो,परन्तु इस भय के लिए निश्चित ही वे स्वयं दोषी नहीं कहे जा सकते। तब फिर इस स्थिति के लियें कौन ज़िम्मेदार है? क्या हम इस स्थिति को बनाये रखना चाहते हैं?क्या यह हिन्दू धर्म का अंग है? मेरी समझ में ऐसा नहीं है। अब मुझे शायद यह जानना पड़ेगा की वास्तव में हिन्दू धर्म क्या है? हिंदुस्तान के बाहर मैं हिन्दू धर्म का जो अध्ययन कर सका हूँ उससे मैंने यह अनुभव किया है कि अपने अंतर्गत ‘अछूत’ कहा जाने वाला समाज बना छोड़ना सच्चे हिन्दू धर्म में नहीं आता। यदि कोई यह सिद्ध कर दिखाए कि यह हिन्दू धर्म का आवश्यक अंग है तो काम से काम मैं हिन्दू धर्म के विरूद्ध विद्रोह घोषित कर दूंगा (हर्ष ध्वनि)। इस बात पर कि यह हिन्दू धर्म का आवश्यक अंग है, मुझे विश्वास नहीं है। और मैं तो यही आशा करता हूँ कि मृत्यु पर्यन्त इसपर विश्वास नहीं करूँगा। ‘अछूतों’ के इस वर्ग के लिए कौन उत्तरदायी है? मुझे बताया गया है कि  सभी जगहों पर ब्राह्मण अधिकार पूर्वक अपनी श्रेष्ठता का लाभ उठा रहे हैं। क्या वे आज भी ऐसा कर रहे हैं ? यदि कर रहे हों तो इस पाप के भागी वे ही बनेंगे। तो इसी प्रतिदान की मुझे घोषणा करनी है। और आपने मेरे प्रति जो स्नेह दिखाया है उसका यही प्रतिदान मैं आपको दूंगा। अक्सर अपने सम्बन्धियों, मित्रों, और अपने प्रिया पत्नी के लिए कोरा स्नेह असाधारण पथ का अनुगमन करता है। इसलिए आपके स्नेह के प्रतिदान स्वरुप मैं ऐसी कुछ बाद कर रहा हूँ जिन्हे सुनने के लिए शायद आप तैयार न हो।  पर मुझे लगता है कि ब्राह्मणों के लिए पुनः अपनी सहजता को प्रतिष्ठित करने का समय आ गया है। मुझे भगवद्गीता का वह सुन्दर श्लोक याद आता है पर मैं उसे सुनाकर उपस्थित जनता को उत्तेजित नहीं करूँगा। फिर भी उसका सार मात्र देता हूँ, ‘सच्चा ब्राह्मण वह है जो दण्डित और अछूत दोनों के प्रति समभाव रखे।’

इस सामाजिक सत्य को गांधीजी ने निरंतर आगे बढ़ाया। और अवर्णों अथवा अस्पृश्यों को सामाजिक जीवन में अग्रसर करने का काम स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जोड़ दिया। उन्होंने अछूतों को हरिजन नाम दिया और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए एक अलग से संस्था खड़ी कर दी, ‘हरिजन सेवक संघ’ जिसमे उन्होंने अपने टेप हुए साधक शिष्यों को कार्यकर्ता बनाया। उनके इस काम से अँगरेज़ और विदेशी ईसाई मिशनरी बड़े भयभीत हुए क्योंकि हिन्दुओं के इस बड़े वर्ग को उन्होंने अपनी राजनीति, समाजनीति और धर्मनीति का आधार बनाया हुआ था। गांधी जी अपने तौर पर उन लोगों से भी लड़े और उनका मनचीता न होने दिया। अंग्रेज़ों ने मुसलामानों को भी अस्पृश्यों के साथ पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार दे दिया था। गांधी जी उसके विरुद्ध लड़े। साथ ही हिन्दू समाज को उन्हें गले लगाने के लिए प्रेरित किया।  स्वामी दयानंद की परंपरा में ही गांधी जी का एक बहुत काम थ. इस काम का मध्यकाल में संत कवियोन्स और १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्वामी राम कृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद ने भी उठाया था। पर गांधी जी ने इसे व्यापक आंदोलन का रूप देकर जहाँ अंग्रेज़ों की कूटनीति की काट की, वहां भारत के सांस्कृतिक और सामजिक जीवन को बड़ा बल प्रदान किया. उनकी इस नीति से स्वतंत्र भारत में इस वर्ग को नए अधिकार मिले हैं। गांधी के सांस्कृतिक और सामाजिक अनुयायी अस्पृश्यता निवारण के इस काम को आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं , फिर भी ग़ांधी दर्शन के इस अंग की क्रियान्विति के लिए बहुत कुछ होना शेष है। 

गांधी जी के अन्य आदर्श आज भी अमल के लिए पुकार रहे हैं। इन्हीआदर्शों को अमल में लाके की प्रक्रिया में गांधी जी महान बने थे, और इन आदर्शों पर अमल किसे महान नहीं बना सकता? 

शब्दार्थ

  • अध्येता = अध्ययन करने वाला
  • प्रसूत = उत्पन्न
  • खद्दर = हाथ का कताबुना कपड़ा
  • आभार = बोझ
  • मनीषी = पंडित
  • क्लांत = थका हुआ
  • कृश = दुबला
  • कृतसंकल्प = जिसने कोई संकल्प, निश्चय किया हो
  • अनूठा = अद्भुत
  • अपरिग्रह = आवश्यक हो उस से अधिक पैसा, अन्न आदि लेना
  • अस्तेय = चोरी करना
  • पूजन = अर्चन
  • वंदन = स्तुति
  • पुण्कल = श्रेष्ठ
  • वरण = चुनना
  • निगुरा = अदीक्षित
  • विवादास्पद = विवाद के योग्य
  • करघा = कपड़े बुनने का यंत्र,
  • सत्तपरामर्श = सत्तायुक्त सलाह
  • सर्वोपरि = सब से ऊपर
  • ज़बरदस्त = प्रबल पड़ने वाला
  • मनयीता = सोचा हुआ
  • क्रियान्विति = पूरा करने की क्रिया

अभ्यास

निम्नलिखित वाक्यों में गलतियों को ठीक कीजिये:

  • भारत धर्म के बौद्ध एवं जैन मत जीवन में अहिंसे के व्यवहार पर बड़ा ज़ोर देते हैं।
  • फिर भी भारत का सारा इतिहास युद्धों की कहानी हो।
  • यहाँ के वीरों ने आक्रमणकारियों से युद्धों के मैदानों में लोहा लेकर, उनके दाँत खट्टे किये जाते हैं।
  • इस देश की वीरगाथाएँ दूसरे देशों तक बड़ें प्रसिद्ध हैं।
  • युद्ध हिंसे का प्रतीक है फिर अहिंसा धर्मी देश में हिंसा का इतना बड़ा व्यापार क्यों?
  • देश के निवासी स्वाभावतः शांतिकामी और दूसरों को हानि पहुँचाने की भावना वाले रहते रहे हैं, फिर भी कोई रंग का खाण्डा लेकर आया तो उन्होंने उसका डटकर मुकाबला किया।

लिखित:

  1. नीचे लिखे वाक्यों में रिक्त स्थानों को इन शब्दों में से ठीक शब्द चुनकर भरिये :

संगठित, स्वागत, कंधों, दुर्दशा, प्रतिनिधि, कनिष्ठ, मंत्रि, संघर्ष, कार्यक्रमों

  • मोहनदास गांधी का जन्म १८६९ में हुआ था। वह करमचंद गांधी के सब से………..कनिष्ठ पुत्र थे।
  • वह गुजरात की रियासत में प्रधान मंत्रि रह चुके थे।
  • लन्डन में बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद वह एक व्यापारी फ़र्म में कानूनी……..के रूप में दक्षिणी अफ़्रीका गये।
  • वहाँ जातिवादी श्वेत सरकार के शासन के अंतर्गत प्रवासी भारतीयों की…………देख कर उनकी ह्रदय को गहरा आघात लगा।
  • वह शीघ्र ही राजनीतिक जीवन में कूद पड़े। उन्होंने पूरी गंभीरता और साहस के साथ इन प्रवासी भारतीयों को………………किया और उनका नेतृत्व किया।
  • वहाँ जातिवादी की नीति के विरुद्ध लगभग बीस वर्षों तक उनके………….के फलस्वरूप गांधी की ख्याति दक्षिण सीमाओं को पार कर, दूरदूर तक फैल गयी। १९२५ में वह जब भारत लौटे, तो एक अत्याधिक लोकप्रिय नेता के रूप में उनका………..किया गया।
  • तिलक की मृत्यु के बाद तो राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व का पूरा भार उनके…………….कंधों पर गया।
  • उन्होंने अपने……………………को इस रूप में प्रस्तुत किया कि अधिक से अधिक जनता अपना सके, विशेषकर पिछड़े वर्ग के लोग।

सूक्ष्म अंतरवाले पर्यायवाची शब्द

अपराध, पाप, गुनाह :- सामाजिक अथवा राजकीय नियमों का उल्लंघन अपराध है। नैतिक और धार्मिक नियमों का उल्लंघन पाप है। बिना आज्ञा के किसी के घर में घुस जाना, किसी की कोई वस्तु चुरा लेना, किसी पर आघात करनाये सभी अपराध हैं। असत्य बोलना, हिंसा करना आदि पाप हैं। कुछ बातें अपराध और पाप दोनों हैं, जैसे हत्या करना, चोरी करना, धोखा देना, किसी का धन हड़प लेना, इत्यादि। गुनाह शब्द अधिक व्यापक है। इस में अपराध और पाप दोनों का भाव सम्मिलित है। झूठ बोलना गुनाह है। चोरी करना गुनाह है।

घमंड, अभिमान, अहंकार, दर्प, गर्व, दंभ, मद :- घमंड से दूसरों के प्रति तुच्छता के भाव का बोध होता है। घमंड और अहंकार अनुचित होते हैं। पर दोनों का कुछ आधार होता है। किसी को धन का घमंड होता है, विद्वता का अहंकार होता है, आदि। अभिमान गर्व उचित होते हैं। हमें अपने देश पर अभिमान है, अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व है। बहुधा अभिमान और गर्व का प्रयोग घमंड के अर्थ में भी होता है। दंभ वह घमंड है जिसका कोई आधार नहीं है। बहुधा अल्पज्ञ भी विद्वान होने का दंभ करते हैं। दर्प में उत्साह का भाव है। वीरों के मुख  से दर्प टपकता है। मद उचित और अनुचित भी हो सकता है। रणभूमि में वीरों का मद देखने ही योग्य होता है। धन के मद में लोग बहुधा अनर्थ कर डालते हैं।

विद्रोह, क्रांति :- विद्रोह से किसी के शासन के विरुद्ध कार्यवाही का भाव निकलता है। कोई भी व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिये प्रतिशोध की भावना से किसी सरकार, शासन या व्यक्ति से विद्रोह कर सकता है। क्रांति का उद्देश्य होता है। उदाहरण के लिये शासन, समाज अथवा धर्म आदि में परिवर्तन। तत्कालीन अवस्था में मनोनुकूल परिवर्तन लाने के लिये क्रांति की जाती है। सलीम ने अपने पिता अकबर से विद्रोह कर दिया था। १९४२ में भारतीयों ने अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध क्रांति कर दी थी।

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