देवता: वैदिक साहित्य प्रधानतया धर्मपरक है। अत: इस युग के धार्मिक विश्वासों के सम्बन्ध में उनसे बहुत विशद रूप से परिचय प्राप्त होता है। उसी काल के आर्य विविध देवताओं की पूजा करते थे। इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम आदि ऐसे अनेक देवता थे, जिन्हें तृप्त व सन्तुष्ट करने के लिए वे अनेक विविध-विधानों का अनुसरण करते थे। संसार का स्रष्टा, पालक व संहर्ता, एक ईश्वर की कल्पना सम्भवत:, बाद में विकसित हुई, और प्रारम्भ में आर्य लोग प्रकृति की विविध शक्तियों को देवता के रूप में मान कर उन्हीं की उपासना करते थे। प्रकृति में हम अनेक शक्तियों को देखते हैं। वर्षा, धूप, सरदी, गरमी सब एक नियम से होती हैं। इन प्राकृतिक शक्तियों के कोई अधिष्ठातृ-देवता भी होने चाहिये, और इन देवताओं की पूजा द्वारा मनुष्य अपनी सुख-समृद्धि में वृद्धि कर सकता है, यह विचार प्राचीन आर्यों में विद्यमान था। प्राकृतिक दशा को सम्मुख रखकर वेदों के देवताओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है:(१) द्यु लोक के देवता, यथा सूर्य, सविता, मित्र, पूषा, विष्णु, वरुण और मित्र । (२) अन्तरिक्षस्थनीय देवता, यथा इन्द्र, वायु, मरुत और पर्जन्य । (३) पृथिवी-स्थानीय देवता, यथा, अग्नि, सोम और पृथिवी। द्यु लोक, अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोक के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकृति की जो शक्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, उन सबको देवतारूप में मानकर वैदिक आर्यों ने उनकी स्तुति में विविध सूक्तों व मन्त्रों का निर्माण किया था। अदिति, उषा, सरस्वती आदि के रूप में वेदों में अनेक देवियों का भी उल्लेख है, और उनके स्तवन में भी अनेक मन्त्रों का निर्माण किया गया है। यद्यपि बहुसंख्यक वैदिक देवी-देवता प्राकृतिक शक्तियों व सत्ताओं के मूर्तरूप हैं पर कतिपय देवता ऐसे भी हैं, जिन्हें भाव-रूप समझा जा सकता है। मनुष्यों में श्रद्धा, मन्यु (क्रोध) आदि कि जो विविध भावनाएँ हैं, उन्हें भी वेदों में दैवी रूप प्रदान किया गया है।
विधि: इन विविध देवताओं की पूजा के लिये वैदिक आर्य अनेकविध यज्ञों का अनुष्ठान करते थे। यज्ञकुण्ड में अग्नि का आधान कर दूध, घी, अन्न, सोम आदि सामग्री की आहुति दी जाती थी। यह समझा जाता था कि अग्नि में दी हुई आहुति देवताओं तक पहुँच जाती है, और अग्नि इस आहुति के लिये वाहन का कार्य करती है। वैदिक काल में यज्ञों में मांस की आहुति दी जाती थी या नहीं, इस सम्बन्ध में मतभेद हैं। महाभारत में संकलित एक प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार पहले यज्ञों में पशुबली दी जाती थी। बाद में राजा वसु चैद्योपरिचर के समय में इस प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन प्रबल हुआ। इस बात में तो सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है, कि बौद्ध-काल से पूर्व भारत में एक ऐसा समय अवश्य था, जब यज्ञों में पशुहिंसा का रिवाज था पर वेदों के समय में भी यह प्रथा विद्यमान थी, यह बात संदिग्ध है। वेदों में स्थान-स्थान पर घृत, अन्न व सोम द्वारा यज्ञों में आहुति देने का उल्लेख है, पर अश्व, अजा आदि पशुओं की बलि का स्पष्ट वर्णन वैदिक संहिताओं में नहीं मिलता।
याज्ञिक कर्मकाण्ड के अतिरिक्त स्तुति और प्रार्थना भी देवताओं की पूजा के महत्त्वपूर्ण साधन थे। वेदों के बहुत से सूक्तों व ऋचाओं में विभिन्न देवताओं की स्तुति ही की गई है। ऋग्वेद के देवताओं में इन्द्र का स्थान विशेष महत्त्व का है। उसकी स्तुति में कही गई ऋचाओं की संख्या २५० के लगभग है। विभिन्न देवताओं की स्तुति में जो मन्त्र वेदों में आये हैं, उनमें उन देवताओं के गुणों एवं शक्तियों का विशदरूप से वर्णन है। इस प्रकार के मन्त्रों द्वारा देवता के गुणों का ध्यान कर मनुष्य उन गुणों को अपने में धारण व विकसित करने की आशा रखते थे, और देवपूजा की यह भी एक विधि थी।
याज्ञिक विधि-विधान: वैदिक युग के देवता प्राकृतिक शक्तियों के मूर्त रूप थे। विश्व की मूल-शक्ति जिस प्रकार प्रकृति के विविध रूपों में अभिव्यक्त होती है, उसे दृष्टि में रख कर वैदिक आर्यों ने अनेक देवताओं की कल्पना की थी। आर्य लोग इन देवताओं के रूप में विश्व की मूलभूत अधिष्ठातृ शक्ति की ही उपासना किया करते थे। इसी प्रयोजन से यज्ञों का अनुष्ठान किया जाता था, जिनका रूप प्रारम्भ में बहुत सरल था। यज्ञकुण्ड में अग्नि का आघान कर उसमें आहुतियाँ दी जाती थीं, और उन द्वारा देवताओं को तृप्त किया जाता था। पर धीरे-धीरे यज्ञों का रूप बहुत जटिल होता गया। उत्तर-वैदिक काल में यज्ञों की जटिलता चरम सीमा को पहुँच गयी थी। यज्ञ के लिये वेदों की रचना किस प्रकार की जाए, वेदों में अग्नि कैसे प्रज्वलित की जाए, किस ढंग से आहुतियाँ दी जाएँ, यज्ञ करते हुए यजमान अध्वर्यु ऋत्विक आदि कहाँ और किस प्रकार बैठें, वे अपने अंगों को किस ढंग से उठाएँ, किस प्रकार मन्त्रोच्चार करें, कैसे ज्ञात हो कि अब देवता यज्ञ की आहुति को ग्रहण करने के लिए पधार गये हैं, किन पदार्थों की आहुति दी जाय—इस प्रकार के विविध विषयों का ब्राह्मण ग्रंथों में बड़े विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। किस याज्ञिक विधि का क्या प्रयोजन है, यह भी उनमें विशद रूप से वर्णित है। आर्य जनता के एक भाग का यही कार्य था कि वह याज्ञिक विधि-विधानों में प्रवीणता प्राप्त करे और उसकी प्रत्येक विधि का सही तरीके से अनुष्ठान करे। इसी वर्ग के लोगों को ’ब्राह्मण’ कहा जाने लगा था। जन्म से मृत्यु-पर्यन्त प्रत्येक गृहस्थ को अनेक प्रकार के यज्ञ करने होते थे। मनुष्य के वयक्तिगत जीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाले संस्कारों का स्वरूप भी यज्ञ का ही था।
वर्णाश्रम व्यवस्था: सांसारिक अभ्युदय (समृद्धि) और अध्यात्म-भावना के इस समन्वय का परिणाम उस सामाजिक व्यवस्था का विकास था, जिसकी विशेषता वर्ण-भेद और आश्रम व्यवस्था हैं। प्राचीन आर्य-परम्परा के अनुसार मानव-जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रत्येक मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह २५ वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत करे। इस काल में वह अपना ध्यान शरीर और मन की उन्नति में लगाए। स्वस्थ शरीर और विकसित मन को प्राप्त कर वह गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करे, और इस काल का उपयोग संसार के सुख व वैभव को प्राप्त करने के लिये करे। पर वह यह दृष्टि में रखे कि सांसारिक भोग ही उसका चरम लक्ष्य नहीं है। पचास वर्ष की आयु में उसे गृहस्थ जीवन का अन्त कर वानप्रस्थी बनना है और जब वह अपनी सब शक्ति और समय तत्त्व-चिन्तन और आत्मिक उन्नति में लगायेगा, क्योंकि मनुष्य को केवल ऐहलौकिक अभ्युदय से ही सन्तुष्ट नहीं होना है, तब वह नि:श्रेयस को भी प्राप्त करता है। वानप्रस्थ के बाद मनुष्य संन्यासी बने, और अपना सब समय लोकोपकार में व्यतीत करे। संन्यास आश्रम में मनुष्य परिव्राजक बनकर संसार में भ्रमण करता है, और प्राणिमात्र का हित और कल्याण सम्पादित करता है।
जिस प्रकार मनुष्य के जीवन को चार विभागों (आश्रमों) में विभक्त किया गया है, वैसे ही मानव-समाज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — इन चार वर्णों में विभक्त है। समाज में सबसे ऊँचा स्थान ब्राह्मणों का है, जो त्याग और अकिंचनता को ही अपनी सम्पत्ति मानते हैं। क्षत्रिय लोग सांसारिक सुखों का उपभोग अवश्य करते हैं, पर उनका कार्य धनोपार्जन करना न होकर जनता की ब्राह्य और आभ्यन्तर विपित्तियों से रक्षा करना है। समाज में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का स्थान वैश्यों की अपेक्षा ऊँचा है, क्योंकि मानव-जीवन का ध्येय धन-सम्पत्ति की अपेक्षा अधिक उच्च है। वैश्यों को कृषि, पशुपालन और वाणिज्य द्वारा समाज की भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करना है, और शूद्र का कार्य अन्य वर्णों की सेवा द्वारा अपनी आजीविका कमाना है। जिस प्रकार मानव-जीवन तभी पूर्ण हो सकता है, जबकि उसमें भौतिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति को भी स्थान प्राप्त हो, उसी प्रकार मानव समाज की पूर्णता के लिये भी यह आवश्यक है, कि उसके विविध वर्ग भौतिक सुखों व साधनों के साथ-साथ परोपकार व अध्यात्म-सुख के लिए भी प्रयत्नशील हों।
शब्दार्थ
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अभ्यास
मौखिक:
१. वैदिक युग के देवगण का वर्णन कीजिये।
२. यज्ञ का अनुष्ठान किस तरह से किया जाता था ?
३. वर्णाश्रम व्यवस्था को स्पष्ट कीजिये।
लिखित:
१. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ लिककर अपने वाक्यों में उनका प्रयोग कीजिये :
सत्ता, कल्पना, मूर्त्तरूप, आजीविका, वाहन
२. नीचे लिखे शब्दों के विपरीतार्थक शब्द याद करके लिखिये:-
- संदेह = ___________
- तिरस्कार = ___________
- प्रबल = ___________
- जटिल = ___________
- भौतिक = ___________
- प्रारम्भ = ___________
३. निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द पाठ में से चुनकर लिखिये:
- ___________ = पेचीदा, पेंचदार, उलझनदार, क्लिष्ट, दुर्बोध, दुरूह, गहन
- ___________ = यकीन, एतबार, भरोसा, प्रतीति
- ___________= ख्याली पुलाव, पकाना, हवाई किले बनाना
- ___________ = रचना, बनाना, सृजन, सृष्टि, विन्यास, गठन, कृति, ग्रंथ
- ___________ = योग्यता, क्षमता, सामर्थ्य, दक्षता, निपुणता, पटुता, गुण
- ___________ = मनोयोग, तन्मयता, तल्लीनता, सावधानी, सतर्कता, सजगता, जागरूकता
४. नीचे लिखे वाक्यों में रिक्त स्थानों को इन शब्दों में से ठीक शब्द चुन कर भरिये: (वर्गीकरण, हवि, पूजा, प्रतिष्ठा, वास्तविक, अपेक्षा, प्रतिनिधित्व, व्यक्त, विस्मृत)
- जिन देवताओं को यज्ञ में ___________ दी जाती थी, वे अनेक वर्ग के थे और उनका स्वरूप भी भिन्न–भिन्न था।
- यह सच है कि कल्पना को प्रभावित करने वाली और लाभ अथवा हानि पहुँचाने की शक्ति रखनेवाली प्रकृति की प्रत्येक वस्तु की प्राचीन आर्यों ने ___________ की।
- किन्तु इनका महत्व वैदिक ऋचाओं के लक्ष्य व्यक्ति – देवताओं की ___________ कम था।
- ये व्यक्ति – देवता अधिकांशतः प्रकृति के स्वभाव और ३ साधनों के देवकृत प्रतिनिधि माने गये और उन में मानवीय चेतनाओं और भावनाओं की ___________ की गयी।
- इन देवताओं के नामों अथवा विशेषणों से उनकी ___________ उत्पत्ति का पता लग जाता है, यथा – द्यैः, पृथ्वी, सूर्य, उषस, अग्नि और सोम।
- साधारण्तया वे प्राकृतिक क्रियाएँ, जिन से ये देवता निकले थे, कालान्तर में ___________ हो गयीं
- प्रमुख वैदिक देवताओं का नामोल्लेख भी यहाँ असंभव है। उनके ___________ के अनेक प्रयत्न हुए हैं जिन में सर्वप्रथम और संभवतः सर्वोत्तम वर्गीकरण यास्क का है।
- वह प्रकॄति के उन आधारों पर है जिनको वे देवता ___________ करते हैं।’
- उन्होंने देवताओं को पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्यु के किसी न किसी कृत्य का ___________ करने के कारण तीन श्रेणियों में विभक्त किया है।
सूक्ष्म अन्तरवाले पर्यायवाची शब्द
विपत्ति, संकट, खतरा, मुसीबत: विपत्ति, बहुधा देवकृत होती है। विपत्ति एकाएक भी आती है, पहले से भी उसका अनुमान हो सकता है और जब आ जाती है तो कुछ दिनों तक ठहरती है। संकट उस विपत्ति को कहते हैं, जो एकाएक आती है, किन्तु विपत्ति अस्थायी होती है। किसी वस्तु के अभाव को भी संकट कहते हैं। भूकंप, बाढ़, आग आदि विपत्तियों से इस साल देश को बड़ी क्षति हुई है। कोरिया पर विपत्ति आई हुई है। धन के कारण प्राणों पर किसी समय भी संकट आ सकता है। इस समय देश में भारी अन्न संकट है। यदि भारत चाहे तो पाकिस्तान में नहरों के क्षेत्र में जल का संकट उपस्थित हो जा सकता है। खतरा उस संकट को कहते हैं, जिसका अनुमान पहले से किया जा सकता है और जो किसी विशेष स्थान या विशेष कार्य में होता है। जंगल में जंगली जानवरों के हमले का खतरा बना हुआ है। कश्मीर पर अभी तक दुश्मनों का खतरा बना हुआ है। खतरा भय के अर्थ में प्रयुक्त होता है। मुसीबत भी विपत्ति के ही अर्थ में प्रयुक्त होती है। देश पर बड़ी भारी मुसीबत आई हुई है। जीवन में मुसीबतें आया ही करती हैं।
सामर्थ्य, क्षमता, शक्ति, बल: सामार्थ्य से कुछ कर सकने की शक्ति का बोध होता है। राम की सामर्थ्य के आगे रावण की सामर्थ्य पराभूत हो गई। राम में समुद्र पर भी पुल बनवाने की सामर्थ्य थी। क्षमता से बहुधा योग्यता का बोध होता है। हरि बाबू में एम.ए के विध्यार्थियों को साहित्य पढाने की भी क्षमता है। हनुमान में सागर लाँघ जाने की सामर्थ्य (अथवा क्षमता) थी। राम में गणित के कठिन से कठिन प्रश्न को भी हल करने की क्षमता है। शक्ति व्यापक शब्द है। सामर्थ्य और शक्ति में पर समानता है कि दोनों से ही कुछ कर सकने की क्षमता का बोध होता है। किन्तु जहाँ सामर्थ्य अस्थायी शक्ति है, वहाँ शक्ति स्थायी सामर्थ्य है। शक्ति शारीरिक, मानसिक और आत्मिक होती है। मनुष्य ने अपनी मानसिक शक्ति के कारण अन्य प्राणियों में श्रेष्ठता प्राप्त कर ली है। योगियों की आत्मिक शक्ति बहुत ऊँचे दर्जे की होती है। शक्ति बहुधा गुप्त भी रहती है। केवल बल कहने से बहुधा शारीरिक शक्ति का ही बोध होता है। हनुमान में बहुत बल है। इस से शक्ति का भी बोध होता है। मानसिक बल आत्मिक बल/ एकता ही बल है। ’सहारा’ के अर्थ में भी बल का प्रयोग होता है। गाँधी जी भारतवासियों के बल थे।
विपरीतार्थक शब्द:
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