काकी की स्वाद-इंद्रिय के अलावा बाकी समस्त इंद्रियों ने काम करना बन्द कर दिया था। बाज़ार से कोई भी वस्तु खाने के लिए आती और काकी को न दी जाती तो वह बच्चों की भाँति गला फाड़-फाड़ कर रोने लगतीं।
काकी को बुद्धिराम के दोनों बेटे बहुत परेशान किया करते, यदि काकी उनपर चिल्लाती तो उनकी माँ रूपा के कोप का भाजन बनतीं। पूरे परिवार में बुद्धिराम की बेटी लाडली ही एकमात्र प्राणी थी जिसे काकी से स्नेह था।
दरअसल लाडली अपने दोनों भाइयों से बचने के लिए काकी का आश्रय लेती थी और काकी को अपने हिस्से की मिठाई आदि दिया करती थी। इस तरह उन दोनों के स्वार्थ की वजह से उन दोनों के बीच सहानुभूति और स्नेह हो गया था।
आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर के भीतर स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन में व्यस्त थी। भट्टियों पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ निकल रही थीं, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं। यह स्वाद मिश्रित सुगंधि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन-ही-मन विचार कर रही थीं, संभवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगीं। इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वह रो न सकीं।
बूढ़ी काकी देर तक इन्ही दुखदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगंधि रह-रहकर मन को आपे से बाहर किए देती थी। मुँह में पानी भर-भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूँ, आज लाडली बेटी भी नहीं आई। दोनों छोकरे सदा दिक दिया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है।
बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। ख़ूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम होंगीं। रूपा ने भली-भाँति भोजन किया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चल कर कड़ाह के सामने ही बैठूँ। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूँघ सकते हैं, परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ूँ बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरीं और धीरे-धीरे
रेंगती हुई कड़ाह के पास जा बैठीं। यहाँ आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने में होता है।
परिवार की ओर से अक्सर नजरअंदाज कर देने वाली काकी को पेट भर खाना भी नहीं मिलता है और सब भर पेट खाते हैं, लेकिन काकी भूखी रह जाती है। रात को भूख जब ज्यादा लगने लगती है तो काकी लाडली के साथ कुटिया से निकलकर बारातियों द्वारा फेंके गए जूठे पत्तल में पड़ा खाना खाने लग जाती है। रूपा की आँखें खुल जाती है और वह यह भयानक दृश्य देखती है। यह दृश्य देखने के उपरांत रूपा का हृदय भय से सिहर उठता है। रूपा स्वभाव से तीव्र किन्तु ईश्वर को मानने वाली एक धार्मिक महिला थी। उसे अपने इस कृत्य पर शर्म महसूस होती है, करुणा और भय से उसकी आँखें भर जाती है। वह सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा माँगती है और अपने इस अधर्म का प्रायश्चित करते हुए काकी को थाल सजाकर भोजन करवाती है। ” काकी उठो, भोजन कर लो, मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर लेना कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दे।” काकी छोटे बच्चे की भाँति सारे अपमान को भूलकर खाना खाने लगती है और उनको आशीर्वाद देने लगीं।
अत: बूढ़ी काकी के चरित्र के माध्यम से हम कह सकते हैं कि मानव जीवन में बुढ़ापा बालपन का पुनरागमन होता है और यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम वृद्धावस्था में उनकी देखभाल करें तथा उनकी इच्छाओं का सम्मान करें।